भौतिकवाद
by A Nagraj
अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित व्यवस्था सहज सूत्रों की व्याख्याओं की रोशनी में बहुत अच्छे से आहार विधियों को पहचान सकते हैं। ये दो विधियाँ है- जैसे शाकाहार, मांसाहार, अति पौष्टिक आहार, अति स्वादिष्ट आहार। इसमें और कुछ चिंतन जुड़ा है कि सुपाच्य भी हों। इस प्रकार से आहार के बारे में सोचा गया है। इन सबके प्रयोजन के बारे में जब निरीक्षण, परीक्षण किया जाता है, तब यह पता लगता है कि अधिक से अधिक मजबूत शरीर हो। उसके उपयोग के बारे में निरीक्षण किया जाता है तब यह और पता लगता है कि वह ज्यादा से ज्यादा संघर्ष कर सकें। संघर्षों में टिक सकें, संघर्षों में विजय प्राप्त कर सकें। चौथी अपेक्षा, पूर्व पीढ़ी से भी कुछ अधिक हो सकती है और वह यह कि स्वयं से स्वयं में सर्वाधिक भोग कर सकें।
आज की स्थिति में भोग का स्वरुप, युवा और प्रौढ पीढ़ी में जैसा भी दिखता है, वह तीन स्थली में केन्द्रित हो चुका है। शयनागार, स्नानागार और भोजनागार। इसके प्राप्त होने का भरोसा राष्ट्रीयकृत बैंकों में अथवा विदेशी बैंकों में मोटी राशि का खाता है। इसीलिए आज तक के मानव छल, कपट, दंभ, पाखंड, द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्घ इन विधियों को अपनाने के लिए मजबूर है। इसी से संग्रह-सुविधा संभव होना माना जाता है। इसमें बिरले व्यक्ति ही अपने व्यक्तित्व वश इससे छूटा रहा हो। अन्यथा छोटे-मोटे संग्रहों के आधार पर इन्हीं नाज नखरों में मगन रहना देखने को मिलता है। द्रोह, विद्रोह, छल, कपट, दभ, पांखड से होने वाली सभी प्रकार की पीड़ाओं को, कुण्ठाओं को, प्रताड़नाओं को भुलावा देने के लिए दो ही उपाय आदमी को सूझा हुआ है, वह है यौन-यौवन-व्यसन और सुरापान। ये सर्वोपरि माने गये। यह इस प्रकार का घनचक्कर है कि कुछ राहत पाने के लिए कुल मिलाकर यौन व्यसन और सुरापान ही मिल पाया। इसे बनाये रखने के लिए जो अमीरी-गरीबी की दूरी है, यही सर्वाधिक दिखाई पड़ता है। उक्त दोनों व्यसनों के लिए समुचित आहार व्यवस्था सहित जीने के लिए प्रत्येक स्तर में (यथा कम से कम खर्च और ज्यादा से ज्यादा खर्च की) दूरी बनी हुई हैं। उसे मैं अपनी भाषा में कहूँ तब एक और एक लाख की दूरी है। जिद्द तो यही है और हर स्तर में यही मानसिकता काम करती है कि ज्यादा से ज्यादा, उससे ज्यादा और उससे ज्यादा की उमीदें बंधी हुई हैं।