भौतिकवाद
by A Nagraj
एवं व्यवस्था। संस्कृति एवं सभ्यता धर्म नीति से, विधि एवं व्यवस्था राज्य नीति से संबद्ध रहता है|
राज्य नीति: यह परिवार मूलक स्वराज्य विधि से सार्वभौम होना, अध्ययनगम्य है। आगे आवर्तनशील अर्थ व्यवस्था को अध्ययन गम्य कराने की स्थिति में प्रस्तुत करेंगे। यह अध्ययन गम्य होना संभव हो गया है। इसकी सार बात यही है कि प्रत्येक मानव के पास तन, मन (ज्ञान और दर्शन), धन रुपी अर्थ रहता ही है। ऐसे अर्थ की सुरक्षा ही “राज्य नीति” है और सदुपयोग ही “धर्म नीति” है। जीवन का वैभव ही, राज्य के रूप में अर्थ की सुरक्षा और गति है। सदुपयोग स्वयं सुख-धर्म का स्वरुप ही है। इसको ऐसा भी समझ सकते है कि अर्थ के सदुपयोग में ही मानव का सुखी होना अर्थात् वर्तमान में विश्वास और भविष्य का आश्वासन पाया जाता है। आज भी मानव जहाँ अपने अर्थ का सदुपयोग समझता है या कल्पना करता है वहाँ उपयोग कर अपने में सांत्वना और सुख पाता हैं। जहाँ-जहाँ तन, मन, धन रुपी अर्थ का दुरुपयोग होना समझ में आया उसकी पीड़ा व्याप्त ही हैं। पीड़ा को मानव वरता नहीं। इसलिए भी व्यवस्था के अनुरुप समाज के रूप में अर्थ का सदुपयोग प्रमाणित हो जाता है। अर्थ की सुरक्षा स्वयं ही परिवार मूलक स्वराज्य के रूप में वैभवित हो जाती है, इसलिए प्रत्येक मानव का समाज और व्यवस्था में, भागीदार होना एक अनिवार्य स्थिति है। जीवन सहज जागृति, समाज सहज अभिव्यक्ति, व्यवस्था सहज भागीदारी और व्यवहार सहज उपलब्धि है; ऐसी उपलब्धि यहाँ समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व है। यही मानव सहज स्वभाव गति प्रतिष्ठा सहज अपेक्षा आवश्यकता और उपलब्धियाँ भी हैं।
बेहोशी में, उन्माद में मनुष्य स्वभाव गति में नहीं रहता है। इस प्रकार उन्मादों, आवेशों में रहते, जितने भी मोटे आदमी हों, वह भय और शंकाओं से घिरा रहता है, इसलिए वह कमजोर होता ही है । आवेशों में कमोबेशी, आदमी में कोई ताकत रह नहीं जाती। समस्याओं से ग्रसित मानव कमजोर होता है। इसी भाँति लाभोन्माद, कामोन्माद, भोगोन्माद से ग्रस्त आदमी मानसिक रूप में कमजोर होता है तथा शरीर रूप में भी कमजोर होता है क्योंकि मानसिकता ही शरीर के द्वारा ताकत को प्रदर्शित करता है। इससे एक सहज निश्चय निकलता है कि “अमानवीयता मानव में, मानव से, मानव के लिए कमजोर स्थिति है।” भले ही वे राक्षस मानव, पशु मानव क्यों न हो पर वे अमानव