भौतिकवाद

by A Nagraj

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आदि क्या ये ठीक है? - ऐसा पूछने पर वे कहते है कि “ईमानदारी से रोटी नहीं मिलती।” जिम्मेदारी से बात या काम किये तो पिस जाते हैं।” ऐसी दो टूक बातें युवा पीढ़ी करती है। मानवीयता के बारे में जब उनसे पूछते है तो ये कहते है “यह तो जरुरी है ।” इस तरह इन तथ्यों के आधार पर यही समझ में आता है कि अन्याय, भ्रष्टाचार, दुराचार करने वाला व्यक्ति भी मानवीयता को एक आवश्यकता के रूप में स्वीकारता है। ऐसे भी बहुत से महत्वपूर्ण लोगों की बातें की गई। इनमें धर्म गद्दी पर बैठे लोग भी रहे है, उनसे मानवीयता के संबंध में चर्चा की गई तो सभी ने मानवीयता को नकारना अनुचित बताया और मानवीयता की आवश्यकता बताई। उनकी भागीदारी के बारे में पूछने पर वे कहते है कि “भागीदारी की बात तो हम कर नहीं सकते क्योंकि हमारा अभी तक किया हुआ, इस नजरिए से, बाकी सब वृथा लगने लगता है । इसलिए हम इसे नहीं ले जा सकते।” इत्यादि।

यह भी देखने को मिला कि ख्याति प्राप्त साधु, संत, मुनि ये लोग अपने को उन सबसे अच्छा मान लेता है, यही कि वे मानवीयता से अपने को श्रेष्ठ मान लेते हैं। उनके अनुसार मानवीयता सामान्य मनुष्य की कथा है, उनके अनुसार वे स्वयं अपने को मानवीयता से अधिक श्रेष्ठ मानकर, अपने संभाषणों को समाप्त करते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि साधु, सन्यासी, संत सभी मानवीयता की आवश्यकता से सहमत होते हैं। ये उस मानवीयता की मापदण्ड से भिन्न है- ऐसा समझ में आता है। लेकिन मानवता को सभी उचित ठहराते हैं। इस प्रकार सर्वाधिक लोगों को यह स्वीकृत है ही। इस विधि से मानवीयता का नाम सबको स्वीकृत है। मौलिकता भी सबको स्वीकृत है। मानवीय ज्ञान, जीवन ज्ञान है। जागृत मानव ही दृष्टा पद में हैं। अस्तित्व ज्ञान सभी मानवों को संभव है- इन बातों को रुढ़िवादी, कट्टरपंथी लोग जल्दी नहीं स्वीकारते, किन्तु विरोध करना भी नहीं बन पाता।

2) मानवीय आहार

मानवीयतापूर्ण विधि से जीने की कला में आहार का स्वरुप एक महत्वपूर्ण बिंदु है। आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, कल्पनाशीलता-कर्मस्वतंत्रता - यह सब मानवीयता के रूप में कार्य करेगा। उस स्थिति में मानव की मौलिकता अपने आप में मूल्यांकन का आधार