भौतिकवाद
by A Nagraj
4. आदि मानव से अभी, मानव की परस्परता में विश्वास घट गया है?
इन चारों बातों में बहुत ज्यादा पीछे न पड़ते हुए अवश्यमेव इस निश्चय पर आते है कि हम अभी जैसे मानव जाति में है, इन सभी परंपराओं में भ्रम सर्वाधिक रूप में ही हैं। मानव में समाहित अमानवीयता का भय है ही एवम् इससे छूटना ही, हमारा प्रधान उद्देश्य है।
मानव की मौलिकतावश अभी भी सामान्य मानव, परंपराओं के निर्भ्रमित होने की प्रतीक्षा में है। इसी तारतम्य में यह निश्चय कर लेना आवश्यक है कि इस धरती में इस समय कोई भी परंपरा ऐसी नहीं है कि इस निर्भ्रमता का दावा कर सकें। इस विश्लेषण से एक शंका जन्मना स्वाभाविक है कि परंपराओं में निर्भ्रमता का स्रोत नहीं है, इस शंका पर विचार करना भी एक आवश्यकता है। इसको ऐसा देखा जाता है, इसी की गवाही भी मिलती है परंपराएँ भ्रमित रहते हुए भी, इन्हीं किसी परपंरा में अथवा प्रत्येक परंपरा में कभी-कभी कोई-कोई व्यक्ति परंपराओं के कथन से भी अच्छा होना पाया जाता है। इसका उदाहरण- आदर्श व्यक्तियों की सूची, प्रत्येक समुदाय परंपरा में, मानव इतिहास में रखी हुई हैं। इसके बावजूद आदर्श व्यक्तियों की कमी नहीं लेकिन कोई आदर्श परंपरा नहीं हुई, जिसे सभी अपनाते हुए हों। परंपराएँ वैसे ही उतनी ही रह जाती हैं। इसमें एक प्रश्न यह भी हो सकता है कि जब अच्छे आदमी रहे है तो परंपरा को क्यों नहीं सुधारें? जागृति के स्त्रोत क्यों नहीं बने ? -ऐसा भी सोचा जा सकता है। इसका उत्तर यही मिलता है कि अच्छा लगना व अच्छा होना में दूरी है, रहस्यमय आधारों पर जैसा ईश्वर, देवता, आत्मा जितनी भी अच्छाइयों की बात कहीं गई है, वह सब घोर तप के अनंतर ही प्राप्त होती हैं। यह सांत्वना मिलने वाली बात हैं। परन्तु हर व्यक्ति घोर तप कर नहीं कर सकता। हर व्यक्ति ठीक हो नहीं सकता। इन निर्णयों पर धर्मशास्त्र, कर्मशास्त्र सबको बदल देने के लिए, इसके विकल्पात्मक आधार का होना अनिवार्य हो जाता है, ऐसा विकल्प वस्तुवाद और विज्ञान के आधार पर आया भी। इसका उद्देश्य सबको अच्छा करना नहीं रहा, प्रकृति पर शासन करना प्रधान घोषणा रहा। साथ ही सबको वस्तु मिलने की अथवा मिलना चाहिए की, उम्मीदों को लेकर भिड़ पड़ा। उसका अनुमान भी सफल नहीं हुआ। जैसा प्रकृति पर शासन करने के स्थान पर प्राकृतिक प्रकोप की चपेट में कयामत होने की जगह में आ गये हैं।