भौतिकवाद

by A Nagraj

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अस्तु, विकल्प की आवश्यकता रही आई। विकल्पात्मक आधार अस्तित्व ही है, जिसका प्रतिपादन हुआ हैं। अस्तित्व ही सहअस्तित्व के रूप में विकास रूप स्पष्ट हैं। यही व्यवस्था अथवा नित्य व्यवस्था के रूप में समझ में आया है। अब यह स्पष्ट हो गया कि विकल्पात्मक आधार सहअस्तित्व है। इस आधार पर चिंतन करने वाला, समझने वाला, जीने वाला, प्रमाणित करने वाला मानव है। इसीलिए इसका नाम अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन है। इस प्रकार हम इस जगह पर आते है कि सभी व्यक्ति मानवत्व सहित व्यवस्था है और व्यवस्था में भागीदार होने का अधिकार अक्षय शक्ति, अक्षय बल संपन्नता के रूप में सभी व्यक्तियों में देखने को मिलता है। इसी आधार पर हर व्यक्ति जागृत होने योग्य है। इसके लिए अनुकूल और सफलात्मक विधि से विकल्पात्मक जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान के आधार पर विधिवत् विचारधारा एवम् समझदारी को संजोना एक आवश्यकता रहा है। इसी आधार पर “समाधानात्मक भौतिकवाद” मानव के सम्मुख प्रस्तुत हुआ। इस प्रकार सबको जागृत होने का अधिकार है। दूसरी तरफ विकल्पात्मक दर्शन और ज्ञान, सहअस्तित्व पर आधारित है। उल्लेखनीय बात यहाँ यह है कि :-

1. सहअस्तित्व में मानव अविभाज्य वर्तमान है।

2. अस्तित्व में मानव दृष्टा है।

इन आधारों पर अथवा इस नजरिये के आधार पर देखने की स्थिति में “मानव का मौलिक तर्क” भी पहचान सकते हैं। प्रयोजन सम्मत विश्लेषण, विश्लेषण सम्मत प्रयोजन, दूसरे तरीके से विवेक सम्मत विज्ञान व विज्ञान सम्मत विवेक ही मानव सहज मौलिक तर्क है।

मानव सहज मौलिकता, मानवीयता ही होना एक उद् गार बन जाता है। इसे तात्विक रूप में और अस्तित्व सहज विधि से परीक्षण, निरीक्षण और सर्वेक्षण करने से यह स्पष्ट होता है कि “अस्तित्व में प्रत्येक एक अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार हैं।”

इसी क्रम में मानव का, मानवत्व सहित व्यवस्था होना कल्पना सहज भाषा है। कल्पना सहज अपेक्षा है। व्यवहार सहज अपेक्षा इन अपेक्षाओं के अनुरुप में प्रयास होना एक