भौतिकवाद

by A Nagraj

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जीवावस्था में स्वभावों को क्रूर-अक्रूर रूप में पहचाना जाता है। क्रूरता “पर-पीड़ा” के रूप में स्पष्ट हुई हैं। जीव जो दूसरे जीवों को पीड़ित करते है अथवा मांसाहार करते है, उन्हें क्रूर जीव कहते हैं। क्रूरता का कुछ जीवों में होना देखा जाता है। कुछ जीवों में कभी क्रूरता और कभी अक्रूरता भी देखने को मिलती है। जीवों में आहार विधि अथवा भयभीत विधि से पर-पीड़ा कृत्य संपन्न होते हुए देखने को मिलता है। कुत्ते-बिल्ली में यही प्रवृत्ति देखने को मिलती है। ऐसे भयभीत विधि से हर जीव कहीं न कहीं पर-पीड़ा करता हुआ देखने को मिलता है। इस प्रकार भयवश पर-पीड़ा स्पष्ट होता है। “आहार के लिए” पर-पीड़ा बाघ, शेर जैसे जीवों में स्पष्ट है।

पदार्थावस्था में प्रस्थापन (परमाणु गठन) और संगठन विधियों को देखने पर पता चलता है कि संपूर्ण वस्तु परंपराओं का स्थापना परिणाम बीज के आधार पर हुई हैं। परिणाम बीज का तात्पर्य यही की परमाणुओं में समाहित अंशों की संख्या हैं। तात्विक परिणाम यही है। इन परमाणुओं में जो अंशों की संख्याएँ होती है, उसी के आधार पर उसकी परंपरा व मात्रा स्थापित होती है । इसकी पोषण विधि सहअस्तित्व के आधार पर स्पष्ट हुई हैं। इसकी पोषण विधि यथा-दो अंशों से गठित परमाणु होने की बात, दो अंश वाले परमाणु प्रजाति और समृद्घ होने की संतुष्टि स्पष्ट होती है और दो अंशों के परमाणु के होने की संभावना बनी रहती हैं।

ब्रह्माण्डीय क्रियाकलापों के क्रम में उष्मा, किरण, विकिरण को पचाने के क्रम में कई बार कई परमाणुओं में से कुछ अंश बहिर्गत हो जाते है। यह अपने में परमाणु के रूप में गठित हो जाते है अथवा किसी परमाणु में समाविष्ट हो जाते हैं। गठित होने का संभावना सदा बना रहता है। इसलिए दो अंशों का परमाणु गठन का संभावना रहता ही हैं। अस्तित्व में सभी अवस्थाओं में उन-उनकी परंपरा अक्षुण्ण रहती ही हैं। पदार्थावस्था से न्यूनतम अवस्था में कोई धरती होती नहीं है। पदार्थावस्था सहज धरती में ही चारों अवस्थाएँ प्रमाणित हो जाती हैं। हर अवस्था में परंपराएँ अपने अपने सिद्घांत से व्यवस्थित है ही। मानव को ही अभी तक अपनी मौलिक परंपरा को पहचानना शेष है।

पदार्थावस्था में समृद्घ धरती ही प्राणावस्था में उदात्तीकृत होती हैं। फलस्वरुप धरती पर हरियाली आरंभ होती हैं। क्रम से धरती समृद्घ होती हैं। पदार्थावस्था, प्राणावस्था के