भौतिकवाद
by A Nagraj
अध्याय – 9
समाधानात्मक भौतिकवाद के नज़रिए में :
1) मौलिकता की पहचान ही निर्वाह का आधार
मौलिकता स्वयं मूल्य है। सभी वस्तुओं की मौलिकता का अपनी ही स्थिति, गति, पद और अवस्था के आधार पर प्रकाशित, संप्रेषित और अभिव्यक्ति होना पाया जाता है। अस्तित्व धर्म नित्य वर्तमान है, अस्तित्व सहज स्वरुप और स्वभाव सहअस्तित्व हैं। इस प्रकार अस्तित्व सहज मौलिकता समझ में आती है। अस्तित्व में चारों अवस्थाएँ, सत्ता में संपृक्त वर्तमान है। चारों अवस्थाएँ सत्ता में अविभाज्य हैं। इसीलिए अस्तित्व ही संपूर्ण वस्तु का मूल धर्म है। पदार्थावस्था का धर्म ही अस्तित्व, स्वभाव संगठन-विघटन क्रिया हैं। प्राणावस्था में अस्तित्व सहित पुष्टि धर्म; सारक-मारक स्वभाव है। जीवावस्था में अस्तित्व, पुष्टि सहित आशा धर्म है। अस्तित्व, पुष्टि शरीर में देखा जाता है। आशा धर्म को जीवन में ही देखा जाता है। इस प्रकार जीवावस्था में जीवन और शरीर का संयुक्त रूप में प्रकाशित होना स्पष्ट है। जीवावस्था में स्वभाव क्रूर और अक्रूर रूप में हैं। ज्ञानावस्था में अस्तित्व, पुष्टि, आशा सहित सुख धर्म होना पाया जाता है। अस्तित्व, पुष्टि मानव शरीर में दिखता है, सार्थक होता है। जीवन में संस्कार और सुख सार्थक होना आवश्यक है।
स्वभाव जागृति क्रम में अमानवीय, जागृति पूर्वक मानवीय और जागृति पूर्णता के रूप में अतिमानवीय होना पाया जाता है। यह अमानवीयता की स्थिति में दीनता, हीनता, क्रूरता के रूप में दिखता है और जागृत स्थिति में धीरता, वीरता, उदारता के रूप में दिखता है। जागृति पूर्ण स्थिति में दया, कृपा, करुणा के रूप में स्वभाव दिखता है। अमानवीय स्वभाव ही दुखी होना; मानवीय स्वभाव ही सुखी होना और अतिमानवीयता का स्वभाव ही आनंद होना स्पष्ट है। इस प्रकार अस्तित्व में संपूर्ण वस्तुओं का मौलिक तत्व सहज रूप में जान पहचान सकते है, फलत: निर्वाह कर सकते हैं। संपूर्ण पहचान मौलिकता और मूल्यांकन ही है।