भौतिकवाद

by A Nagraj

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ऐसे मूल्य और मूल्यांकन, चाहे व्यवहार में हो, व्यवसाय में हो, विनिमय में हो, चाहे नैसर्गिकता में हो- इस क्रम को अस्तित्व सहज रूप में देखने पर पता चलता है कि पदार्थावस्था में स्वभाव संगठन-विघटन के रूप में कार्यरत है। हर इकाई का विघटित होने के उपरान्त संगठन की संभावनाओं को इस प्रकार देखा जा सकता है कि हर परमाणु-अणुएँ संगठन में भागीदारी निर्वाह करने के प्रयास में ही रहते हैं। फलत: परमाणु के रूप में सभी अंश प्रतिष्ठा पाते हैं। हर अंश अपने को संगठन प्रतिष्ठा में पाकर ही व्यवस्था में भागीदार होना प्रमाणित कर पाता है। इस प्रकार पदार्थावस्था में हर वस्तु को संगठन के आधार पर ही अथवा एक परमाणु में निहित अंशों की संख्या के आधार पर ही उस परमाणु की प्रजाति, मात्रा और कार्य को पहचान पा रहे है और वह स्वयं व्यक्त होता हुआ दिखाई पड़ता है। अस्तु, पदार्थावस्था में गठन के आधार पर, वह भी संगठन के आधार पर मौलिकताएँ प्रमाणित है।

प्राणावस्था में मौलिकता को रचना विधि के आधार पर सारक-मारक स्वभाव को पहचाना जाता है या वनस्पतियाँ सारक-मारक विधि से अपने स्वभाव को व्यक्त करते रहता है। यह भी प्राण कोषाओं के स्वभाव क्रिया का ही प्रकाशन हैं। कुछ प्राण कोषाएँ कुछ तत्वों को पचाती है और कुछ कोषाएँ अन्य तत्वों को पचा लेता है। इस प्रकार मूलत: प्राण कोषाओं में निहित रस तत्व ही सारक-मारक रूप में प्रकाशित होता है। सारकता का तात्पर्य अधिकतर मानव और जीव शरीर के लिए अनुकूल तत्व हैं। मारकता है- मानव शरीर और जीव शरीरों के लिए प्रतिकूलता जैसे- जिस रासायनिक द्रव्य को हम जहर कहते है, उसे पचाकर रखे हुए वनस्पति होते हैं। उसे जहरीली वनस्पति भी कहते है और ऐसी वनस्पतियों को पहचाना भी गया है। इसी प्रकार खनिज में भी विषों को पहचाना गया है। इसी क्रम में जीवों एवं स्वेदजों में भी विष संचय करने वाले जीवों व स्वेदजों को पहचाना जाता है। जैसे- कुत्ता, साँप, बिच्छू आदि। जबकि ये सब अपने रूप में जीव, स्वेदज, वनस्पति और खनिज कहलाता है। इस प्रकार वे सब मारक वस्तुएँ है। विशेषकर मानव शरीर के लिए अर्थात् शरीर संरक्षण-पोषण के लिए अनुकूल होता हो उसका नाम है सारक, इसके विपरीत (शरीर संरक्षण-पोषण के लिए विपरीत) होता है वे सब मारक है। इसी आधार पर वनस्पतियों में मौलिकता को पहचाना जाता है। वनस्पतियाँ अपने स्वभाव में संपन्न रहती है।