भौतिकवाद

by A Nagraj

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एक, किसी पर लाख, करोड़ लिखा हुआ देखने को मिलता है। मानव के आवश्यकीय वस्तु के रूप में वह मुद्रा दिखती नहीं है। यह मान लिया जाता है मुद्रा से वस्तु मिलेगी।

इस मान्यता में यह स्पष्ट हुआ है कि वस्तु का प्रतीक मुद्रा है। स्मरणीय सूत्र यह है कि “प्रतीक प्राप्ति नहीं होती और प्राप्तियाँ प्रतीक नहीं होती।” इसका तात्पर्य यही हुआ कि हर प्रतीक कैसा भी, कितना भी बदल सकता है। जैसा पहले भी कह चुके है कि कागज के टुकड़े पर “एक” भी लिखा जा सकता है और उस पर एक अरब भी। इसका ध्रुवीकरण करने के लिए प्रत्येक देश ने विदेशों के साथ एक आवश्यकता को अनुभव किया। उसे किसी प्रकार की धातु वस्तु (जैसा सोना) मान ली गई है। इस विधि में जिनके पास ज्यादा वस्तु है, वह वस्तु (अर्थात् सोना) पत्र मुद्रा को ध्रुवीकृत करता है, अधिक वस्तु (सोना, चांदी) के आधार पर तैयार की गई पत्र मुद्रा की संख्या कम दिखती है वह अधिक मूल्यवान दिखता है। वहीं जिस देश में वस्तु (सोना, चांदी) कम हो गई है अथवा जहाँ सोना जैसी वस्तुएँ कम होती जाएगी, ऐसी मुद्रा कोष से प्रस्तावित पत्र मुद्रा की संख्या बढ़ते ही आया और बढ़ता ही रहेगा।

इस प्रकार जिस देश में मुद्रा कोष की आधार वस्तु (सोना) जैसे-जैसे घटती गई, उसी अनुपात में दूसरे देश का आधार मुद्रा कोष की आधार वस्तु बढ़ गई है। उतने अनुपात में घाटा कोष वाले देशों से वह वस्तुओं को खरीदता है। उसी अनुपात और अवधि से अधिक कोष वाले देश बेचते हैं। इस प्रकार मुद्रा कोष अर्थात् प्रतीक मुद्रा के आधार पर जिन वस्तुओं को कोष मान लिया गया है वह जिनके पास अधिक हो चुका है (जैसे सोना) वह बढ़ते ही जाना है और जिनके पास कोष कम है वह घट चुका है उनका कोष कम होते ही जाना है। फलस्वरुप प्रतीक मुद्राओं पर संख्या क्रम बढ़ते ही जाना है। फलस्वरुप देश में वस्तुओं का मूल्य बढ़ते ही जाना और विदेश के लिए वस्तुओं का मूल्य घटते ही जाना है। इस प्रकार प्रतीक मुद्रा और आधार मुद्रा कोष विधि में बिंधा गया हुआ माया जाल है।

इससे स्पष्ट समीक्षा होती है कि अधिक कोष वाले देश को अधिक अमीर होते जाना है, क्योंकि जैसा मानना है कि धन से धन पैदा होता है, जबकि वैसा होता नहीं। इस क्रम में जो कुछ होता है वह शोषण है। अधिक कोष वाले देश के लिए, सभी कम कोष वाले देश, उनके कोष को बढ़ाने में सहमति पूर्वक लग गए हैं। यही प्रलोभन की महिमा है, दूसरी