भौतिकवाद

by A Nagraj

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आवश्यकता के अनुसार अपने देश का उपयोग करेंगे। इस प्रकार की सूझ-बूझ स्पष्ट होती है।

इस प्रकार “गरीब देश अमीर देश हो जाये और गरीब आदमी अमीर हो जाये” यह बात केवल एक प्रलोभनात्मक भाषा शब्द है। देश और मानवों में लालच ही पैदा किया जा सकता है। लालच सदा ही फँसने अटकने और दरिद्र होने का रास्ता बनाता है। अस्तु, विश्व अर्थ चिंतन का जीता जागता प्रमाण दिन प्रतिदिन अटकना ही है, इसे सुलझना नहीं है। इसका कारण एक ही है- वह है पत्रमुद्रा अथवा प्रतीक मुद्रा। यही भय और प्रलोभन की महिमा है।

समाधान :- राज्य के साथ समाज और धर्म अविभाज्य वर्तमान है। धर्म के साथ समाज और राज्य अविभाज्य वर्तमान है। समाज के साथ राज्य और धर्म अविभाज्य वर्तमान है । मानव धर्म का मूल रूप में सर्वतोमुखी समाधान है, इसके लिए मानव परंपरा में परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था प्रस्तावित है। जिसका फलन समाधान, समृद्घि, अभय और सहअस्तित्व सहज प्रमाण है। राज्य, समाज और धर्म अलग अलग नहीं हो पाते। भाषा के रूप में कई तरीके से बात कर सकते है पर होता है वही जो अस्तित्व में है। अस्तित्व में मानव का होना, पहले स्पष्ट हो चुका है। मानव का स्वरुप स्वायत्त रूप में, परिवार के रूप में, ग्राम व विश्व परिवार के रूप में पहचान सकते हैं। मूलत: मानव की पहचान अर्थात् व्यक्ति की पहचान पहले कर लें अथवा विश्व मानव को पहले पहचान लें।

इनकी पहचान से यह पता चलता है कि सर्वप्रथम एक समझदार मानव को पहचानना अति अनिवार्य है। यह भी समझ में आता है कि प्रत्येक मानव आकार के रूप में विविध है। मानव को पहचानने का आधार क्या होगा? यह प्रश्न स्वाभाविक रूप में विचारशील व्यक्तियों में उपजता ही है। इसका उत्तर खोजने पर पता चलता है कि हर वस्तु की पहचान उस-उस के आचरण पर ही निर्भर हैं। आचरणों को योग, संयोग, वियोग के आधारों पर पहचाना जाता है। एक दूसरे का मिलन, योग हैं। पूर्णता के अर्थ में सार्थक योग, संयोग हैं। वियोग वह है कि योग और संयोग पहले से थी उससे छूट गए। इस प्रकार वियोगात्मक आचरण के आधार पर कोई समाज रचना नहीं होती है। अब संयोग और योग की बात आता है। अभी तक जो कुछ भी आदमी, परिवार और समुदाय के रूप