भौतिकवाद

by A Nagraj

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संतोष और आनंद की अपेक्षा रखता ही है। यही मन: स्वस्थता का आशावादी होने का गवाही है।

मन: स्वस्थता मानव सहज जागृति का तृप्ति बिंदु हैं। मानव जब तक न्याय, धर्म, सत्य सहज दृष्टियों को प्रयोग करता नहीं है तब तक जागृति का प्रमाण सत्यापित कर नहीं पाता। जागृति से वंचित होने का मूल कारण अभी तक भ्रमित परंपराएँ और उस पर बनी हुई आस्थाएँ है।

“न्याय, धर्म, सत्य दृष्टियों का प्रयोग हर व्यक्ति कर सकता है।” यही जागृत परंपरा है। भ्रमित समुदाय परंपरा हर व्यक्ति को किसी न किसी सीमा में फँसा देती है। परिणामत: संकीर्णता में ग्रसित होना पाया जाता है। न्याय, धर्म, सत्य दृष्टियों का सहज ही विशाल, विशालतम होना पाया जाता है। जैसे, हर व्यक्ति, हर व्यक्ति के साथ अपने संबंधों को पहचान सकता है, उनमें निहित मूल्यों का निर्वाह कर सकता है, मूल्यांकन कर सकता है। प्रत्येक मानव में यही विशालता की संभावना और गति के लिए परंपरादायी है। अपने-पराए की दीवार और परिचित-अपरिचित की दीवार बनाए रहता है। इन्हीं कारणों वश मानव परंपरा में समझदारी नहीं होने से न्याय सहज विशाल दृष्टि का प्रयोग नहीं कर पाता।

आगन्तुक व्यक्तियों के साथ अपने ही अंदाज में निश्चय हुए आयु के साथ संबोधन करना, देखा जा सकता है। जिसके साथ जैसा संबोधन हुआ रहता है उनके साथ उसी तरीके के मूल्यों का निर्वाह करते हुए देखने को मिलता है। इसमें किसी भी आयु वर्ग के मानव हो, इस मुद्दे पर ऐसा परीक्षण कर सकते हैं। आगन्तुक व्यक्तियों के आयु वर्ग के अनुसार, सहज संबोधन के रूप में किसी न किसी संबध के साथ किया जाये उनमें से कोई नकारने वाले भी मिलते है और सकारने वाले भी मिलते हैं। इन दोनों परीक्षणों को ध्यान में रखते हुए सोचा जाय तो इनमें कुछ और ज्ञानार्जन होने लगता है। किसी भी बच्चे से, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, हम मिलते है। शिशु, कौमार्य सहज सौन्दर्य उनमें रहता ही है, साथ ही समान आयु वर्ग के आदमी रहे हों, दादाजी, मामाजी, चाचाजी और भाई कहने योग्य हों, ऐसे संबोधन के प्रभाव में व्यक्ति पर अपना-पराया का प्रभाव, ऐसे बच्चों के बीच में बाधा नहीं डालता, निष्प्रभावी हो जाता है।