भौतिकवाद

by A Nagraj

Back to Books
Page 126

दूसरी जो स्थिति बताई गई उसमें परस्पर आगन्तुकता युवा, प्रौढ़ और वृद्घ की हो सकती हैं। ऐसी स्थिति में यह देखने को मिलता है कि अपने-पराए के आधार पर ही संबोधन की स्वागत कराने के बीच में अवरोध पैदा कर देता है इसलिए कुछ लोग स्वागत कर पाते है, कुछ लोग आंशिक रूप में स्वागत करते है, तो कुछ लोग बिल्कुल भी स्वागत नहीं करते। इन तीनों स्थितियों को इस प्रकार परंपरा के भ्रमवश, परंपरा से आई हुई मान्यताओं के साथ अपना पराया होता ही है।

जैसे, हिन्दू धर्म, सिख धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, यूनानी धर्म, हरिजन धर्म, आदिवासी धर्म आदि और इसी प्रकार बहुत से धर्मों को गिनाया गया है। बहुत सारे धर्मों के आधार पर समुदाय चेतना देखने को मिलती है। किसी एक समुदाय के आधार पर, मान्यता भले ही रुढ़ि के रूप में क्यों न हो, ऐसा होने के बाद स्वाभाविक रूप में उनके लिए बाकी सभी पराए हो ही जाते हैं। इस प्रकार अपने-पराए का चक्कर सभी व्यक्तियों के साथ प्रकारान्तर से चला है अथवा सर्वाधिक व्यक्तियों के साथ यह चक्कर लगा हुआ है। समाज मानव समाज ही होता है। “मानवत्व” मानव चेतना संपन्न परंपरा ही धर्म और राज्य का आधार होता है। समाज परंपरा में व्यवस्था होती है। समाज अखण्ड होता है। समाज समुदाय नहीं होता है। समुदाय समाज (अखण्ड) नहीं होता। सामुदायिक व्यवस्था सार्वभौम नहीं होते, इसकी गवाही मानव को मिल चुकी है।

अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का मूल सूत्र एक ही है यह है समाधान। समाधान=सुख। समाधान=व्यवस्था। संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्याकंन क्रिया- ये समाधान है। फलस्वरुप सुखी होना पाया जाता है।

स्वयं में व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी ही समाधान, समाधान ही सुख, शांति, संतोष, आनंद है। मानव धर्म सुख ही है। यह जागृति का द्योतक हैं।

न्याय पूर्वक सुख और शांति, व्यवस्था पूर्वक शांति और संतोष, तथा अनुभव पूर्वक संतोष और आनंद जीवन में प्रमाणित होता है। प्रत्येक मानव इसे अनुभव कर सकता है। ऐसे अखण्ड समाज- परिवार मूलक व्यवस्था, विश्व परिवार में व्यवहार रूप दे सकता है। व्यवस्था कम से कम 100 से 200 परिवारों के बीच में, अर्थात् 1000 से 2000 जनसंख्या के बीच स्वायत्त विधि से सफल हो सकती है। स्वराज्य की परिभाषा ही है-स्वयं का वैभव, स्वयं का स्वरुप मानव, मानव के समान वस्तु जीवन है। जीवन का