भौतिकवाद
by A Nagraj
सहअस्तित्व रूप में स्पष्ट है जैसे अनन्त परमाणु, अनंत अणु, अनंत रचना और अनंत जीवन व्यापक सत्ता में संपृक्त हैं। अत: क्रियाशील है, “त्व सहित व्यवस्था” के रूप में सहअस्तित्व सहज वैभवित है। इस क्रम में मानव के अतिरिक्त संपूर्ण प्रकृति ही सहअस्तित्व में “त्व सहित व्यवस्था” के रूप में व्याख्यायित है। मानव संस्कारानुषंगी व्यवस्था है। इसके फलस्वरुप प्रत्येक मानव को समझदारी के साथ जीने का हक बनता है। परंतु साथ-साथ व्यवस्था को समझने की जिमेदारी भी है। समझदारी का स्रोत परंपरा ही है। इस क्रम में लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, कामोन्मादी अध्ययन प्रबंधों और उपक्रमों के स्थान पर विकल्प के रूप में “कामोन्मादी मनोविज्ञान” का विकल्प “मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान” भोगोन्मादी समाज चेतना अथवा “भोगोन्मादी समाज शास्त्र” के स्थान पर “व्यवहारवादी समाजशास्त्र” विकल्प है। इसी प्रकार “लाभोन्मादी अर्थशास्त्र” के स्थान पर “आवर्तनशील अर्थ व्यवस्था” का विकल्प के रूप में प्रतिष्ठित होना स्वाभाविक रहा है, क्योंकि उन्मादों से होने वाली पीड़ाओं से अथवा उन्मादों से होने वाली अव्यवस्थाओं की पीड़ा से अधिकांश मानव पीड़ित हो चुके हैं। भ्रम से बेहोशी की ओर जो घनीभूत होंगे, वे ही इस पीड़ा को नहीं समझ पाएँगे, ऐसे लोग भी कम ही होंगे।
अस्तु, इन प्रबंधों को शिक्षा में अपना लेने से शिक्षा का मानवीकरण संभव हो सकेगा। ऐसे आवर्तनशील अर्थचिंतन, व्यवहारवादी समाजशास्त्र और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान सहज ऐश्वर्य से संपन्न होने के लिए समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद की आवश्यकता, अनिवार्यता है ही, जो पहले स्पष्ट की जा चुकी हैं। ये सब उपलब्ध हो गए हैं। इन छ: प्रबंधों को पाने के लिए अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण के प्रतिपादन सहज रूप में, मध्यस्थ दर्शन प्रतिपादित हुआ है। जो स्वयं “मानव व्यवहार दर्शन”, “मानव कर्म दर्शन”, “मानव अभ्यास दर्शन” और “मानव अनुभव दर्शन” की अभिव्यक्ति हैं। इस दर्शन के आधार पर वाद और शास्त्र निर्गमित हुआ। इसे मानव परंपरा में अर्पित करने का संकल्प स्वयं प्रेरित है। इस अनुसंधान के मूल में, अव्यवस्था की समझ में जो पीड़ाएँ थीं, उन्हें दूर करना ही प्रधान कारण रहा है।
व्यवस्था सहअस्तित्व सहज अभिव्यक्ति हैं। यह अस्तित्व सहज रूप में हैं। अस्तित्व सदा ही सहअस्तित्व के रूप में वर्तमान है। सहअस्तित्व ही व्यवस्था के रूप में