भौतिकवाद

by A Nagraj

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महापुरुषों को, सामान्य जनों ने अपने आस्था सुमन अर्पित किए। आज भी इस बात को परीक्षण कर देखें, उन्मादों की तुलना में आस्थाएँ राहत सी प्रतीत होती है। इस बात को परीक्षण कर देखा गया है। इसके बावजूद भक्ति और विरक्ति का शिक्षा, व्यवस्था, संविधान और संस्कारों में सार्वभौम होना संभव नहीं हुआ।

इसके साथ यह भी देखने को मिला कि विज्ञान शिक्षा अवश्य ही सार्वभौम रूप में शिक्षा क्रम में उतर आया पर यह यंत्र प्रमाण में अटक गया। यह विज्ञान शिक्षा, शिक्षा क्रम में वैभवित होते हुए भी व्यवहार में सार्थक नहीं हो पाया, जैसे- संस्कार, व्यवस्था, संविधानों में और मानव सहज आचरण में सहायक या प्रमाणित नहीं हो पाया। इसमें यही तर्क कर सकते है कि शरीर शास्त्रियों के अनुसार मानव को इससे सहायता मिली है। शरीर और स्वास्थ्य संबंधी बातें मानव से ही आरंभित रहीं। इसमें यही अत्याधुनिक तकनीकी, यंत्र और तंत्र सहित किये गये प्रयासों से मानव की औसत आयु बढ़ना प्रमुख मुद्दा नहीं है। इसके उत्तर में, अव्यवस्था में प्रभावित होता हुआ मानव दिखता है। अव्यवस्था का प्रधान प्रभाव तीन उन्माद समोहनात्मक और तीन उन्माद विरोधात्मक पाया जाता है जिसका जिक्र ऊपर कर चुके है।

विकल्प के स्वरुप में अर्थात् अव्यवस्था के विकल्प में, व्यवस्था ही है। अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन व्यवस्था- सार्वभौम व्यवस्था, अस्तित्व सहज व्यवस्था, सहअस्तित्व सहज व्यवस्था, रासायनिक-भौतिक रचना सहज व्यवस्था, विकास सहज व्यवस्था, जीवन सहज व्यवस्था और जीवन जागृति सहज व्यवस्था को स्पष्ट करता है। इसको अध्ययनगम्य कराना ही सहअस्तित्ववाद का उद्देश्य है। “सहअस्तित्ववाद” में “समाधानात्मक भौतिकवाद” एक प्रबंध है।

कुल मिलाकर व्यवस्था सूत्रों का सम्मिलित नाम है- समाधान। इसी नाम का वैभव रूप मानव में भी प्रमाणित होता है। इसका स्वरुप पूर्णता के प्रति संपूर्ण अवधारणा है। अवधारणा स्वयं दर्शन और ज्ञान ही है। दर्शन, प्रमाणीकरण में ही ज्ञान सम्मत आचरण हैं। आचरण का वैभव व्यवस्था है। व्यवस्था सहज वैभव ही परंपरा है। परंपरा सहज वैभव स्वयं पूर्णता और उसकी निरंतरता है।

भौतिक और रासायनिक क्रियाकलापों द्वारा सहअस्तित्व सहज रूप में ही व्यवस्था और समाधान को प्रकाशित करना स्पष्ट हुआ हैं। संपूर्ण वस्तुएँ ही अपना अविभाज्यतावश