भौतिकवाद

by A Nagraj

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रासायनिक-भौतिक संयुक्त वैभव क्रम में संपूर्ण रचनाएँ साकार हो जाता है और साकार है। इन्हीं रचनाओं में जीव और मानव शरीर रूप में भी स्थापित रहता है, स्थापित होता है। यह विश्लेषण अस्तित्व सहज अभिव्यक्ति हैं। वर्तमान में अस्तित्व ही दृष्ट रूप मानव में, से, के लिए दर्शन की संपूर्ण वस्तु हैं। दृष्टा सहज प्रकृति अपने में चैतन्य इकाई के स्वरुप में वर्तमान है। चैतन्य रुपी जागृत जीवन ही दृष्टापद में बोध और अनुभव पूर्वक, अस्तित्व दर्शन और जीवन ज्ञान को व्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित कर पाता है।

जीवन जागृति के प्रमाणों को प्रस्तुत करने के क्रम में जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन की एक आवश्यकता निर्मित हो जाता है। यह आवश्यकता और अनिवार्यता सहअस्तित्व सूत्र में समाहित रहता है, सहअस्तित्व हृदयंगम होता है। हृदयंगम होने का तात्पर्य बोध अवधारणा के रूप में जीवन आश्वस्त होने से हैं। उसकी अभिव्यक्ति अर्थात् उन अवधारणाओं की अभिव्यक्ति सहज प्रक्रिया में विश्वास होना ही अध्ययन है।

ऐसा विश्वास जीवन में तभी हो पाता है, जब मानव व्यवस्था में जीता हो और समग्र व्यवस्था में भागीदारी की प्रक्रिया प्रकट रहता है । अन्यथा भ्रमित रहना पाया जाता है। अव्यवस्था के रूप में उसका व्यक्त होना उस भ्रम का परिणाम हैं। अव्यवस्था मानव जाति की पीड़ा का ही स्वरुप है, क्योंकि अव्यवस्था की समझ बराबर पीड़ा है। मानव जब कभी भी पीड़ित होता है, उसका अध्ययन करने पर पता लगता है कि अव्यवस्था की समझवश ही वह पीड़ित हुआ रहता है । व्यवस्था की अपेक्षा में ही अव्यवस्था की समझ और पीड़ा प्रक्रिया बद्घ रहता है।

इसका व्यवहारिक रूप-एक आदमी को ज्वर होने की स्थिति अव्यवस्था है, हाथ पैर टूटने की स्थिति अव्यवस्था हैं। वाद विवाद होने की स्थिति अव्यवस्था है फलस्वरुप पीड़ा है। वाद विवाद मानव में तभी प्रभावशील होता है जब दोनों पक्ष गलत हों अथवा एक पक्ष अवश्य गलत हो। इस स्थिति में वाद विवाद हो पाता है। दोनों पक्ष यदि सही हों, उस स्थिति में वाद विवाद होने की घटना नहीं हो पाती। इसके स्थान पर परस्पर विश्वास, समाधान के प्रति एकजुट निष्ठा का होना पाया जाता है। कुछ आयामों में इसके प्रमाण स्थापित हो चुके हैं। इस क्रम में यह भी पता लगता है कि वाद विवाद के मूल में कम से कम एक पक्ष में गलती रहती ही है। गलती का मूल रूप भ्रम ही है। भ्रम