जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
का मूल्यांकन करता ही है। वस्तु मूल्य सब जगह फैला है जबकि जीवन मूल्य, मानव मूल्य, स्थापित मूल्य हमारे में (जीवन में) ही है और जीवन अपने से इनका मूल्यांकन करता है कितना सहज कार्य है कितना महिमापूर्ण है। इसके लिए कहीं बाहर से संयंत्र लगाने की जरूरत नहीं है। स्वयं को, स्वयं से, स्वयं के लिए ही परीक्षण करने की बात है। इसकी सबको जरूरत है। इसकी संभावना को सर्व सुलभ बनाने में विधि की बात आती है, नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय के मुद्दे पर ही शिक्षा संस्कार कार्य संपादित होता है। जब यह विधिवत संपादित होता है जीवन जागृत हो जाता है फलस्वरूप संबंधों को पहचानने में समर्थ हो जाता है। संबंधों को प्रयोजनों के अर्थ में पहचानता है फलस्वरूप आदमी सुखी हो जाता है। इस विधि से हम आस्वादन तक पहुँचे।
फिर आता है तुलन। प्रिय, हित, लाभ विधि से तुलन जीव जानवर करते हैं मानव की तुलन विधि है- न्याय, धर्म, सत्य। ये ध्रुव बिन्दु हैं इसे पकड़ने की, स्वीकारने की आवश्यकता है। जैसे ही इसे हम स्वीकारते हैं तो हमारा प्रयत्न इस दिशा में होता है। अभी तक शिक्षा, संस्कार, मूल्यांकन जो भी मानव ने किया संवेदनाओं के आधार पर किया और पूरा पड़ा नहीं इसलिए परंपरा बनी नहीं। इसलिए तुलन में से प्रिय, हित, लाभ को न्याय, धर्म, सत्य में विलय करने की आवश्यकता है।
अर्थात् न्यायपूर्ण प्रिय, न्यायपूर्ण हित और न्यायपूर्ण समृद्धि। न्याय दृष्टि से लाभ की जगह समृद्धि आ जाती है। न्यायपूर्वक उत्पादन से हम समृद्धि के मंजिल पर पहुँचते हैं और संग्रह विधि से हम शोषण के मंजिल पर पहुँचते हैं। शोषण से हम स्वयं भी क्षतिग्रस्त होते हैं और संसार को भी क्षतिग्रस्त करते हैं। इसे सटीकता पूर्वक अध्ययन करने की आवश्यकता है, स्वीकारने की आवश्यकता है और इस पर दृढ़ संकल्प को स्थापित करने की आवश्यकता है। इसलिए मानवीय शिक्षा की आवश्यकता है। जिससे हर बच्चा स्वायत्त होगा और छः सद्गुणों से पूर्ण होगा :-
1. स्वयं में विश्वास 2. श्रेष्ठता का सम्मान
3. प्रतिभा में संतुलन 4. व्यक्तित्व में संतुलन
5. व्यवहार में सामाजिक 6. व्यवसाय में स्वावलंबी