जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
इसका प्रयास हमने किया है, खुशहाली के लिए किया है। किसी का उपकार करने के लिए, एहसान लादने के लिए नहीं किया। हम बोधपूर्वक यानि अनुभव का बोध होने के आधार पर (अनुभव प्रमाणिकता है - प्रमाणिकता का बोध बुद्धि में होता है) बुद्धि का प्रवर्त्तन होता है। उसी का नाम संकल्प है। संकल्प के आधार पर हम अभिव्यक्ति, संप्रेषित होने की इच्छा होती है। प्रमाणित करने की प्रवृत्ति होती है। हम प्रमाणित कर देखा यह सबके लिए जरूरी है। ऐसा जानते हुए आगे का कार्यक्रम प्रस्तुत करना शुरू किया।
पहले प्रयास में जीवन विद्या योजना रही जिसमें चिंतन से प्रारंभ कर संकल्प तक जीवन क्रियाओं को स्पष्ट किया। जिसको संकल्प हुआ; उसके अनुसार जीने की कला के लिए स्वभाविक रूप से चित्रण होता है। अब से पहले संवेदनाओं के आधार पर जीने के लिए चित्रण होता रहा है। अब उसके स्थान पर प्रमाणिकता पूर्वक जीने की कला के लिए चित्रण होना प्रारंभ होता है। इसका स्वरूप है उपकार विधि। उपकार विधि से जब हम अपनी सामान्य आकांक्षाओं महत्वाकांक्षाओं को चित्रित करते हैं तो उस समय यही निकलता है कि हम स्वयं स्वायत्त रूप में समाधान समृद्धि को प्रमाणित किये रहते हैं तभी हम उपकार करने योग्य होते हैं ऐसी योग्यता को हम कहीं छुपा नहीं पाते हैं। वह स्वाभाविक रूप से उपकार के लिए नियोजित होती है। इस उपकार विधि से हमारी सामान्य आकांक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं सीमित हो जाती है। इस सूत्र में आवर्तनशील अर्थशास्त्र स्वयं समाहित ही है, समीचीन है। मनुष्य उसे समझ सकता है, जागृति के बाद समझ में आता ही है। इस ढंग से आवर्तनशील अर्थ व्यवस्था के साथ (अर्थ = तन, मन, धन) हम धार्मिकता (धर्मनीति) में (व्यवहार, उत्पादन, व्यवस्था) नियोजित हो जाते हैं। शिक्षा में नियोजित करते ही हैं। इस ढंग से मनुष्य को सभी ओर नियोजित होने का अवसर बना ही रहता है और उन अवसरों को नियोजित करने की विधि स्वयं स्फूर्त आती है।
आधुनिक परंपरा में पढ़ने लिखने के बाद धीरे-धीरे मनुष्य उत्पादन से विमुख होने लगता है और अधिक से अधिक सुविधा संग्रहण के लिए तृषित रहता है। जबकि जागृति पूर्वक व्यवस्था में मानवीयतापूर्ण विधि से हमारी सामान्य आकांक्षा और