जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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करता है। बचपन में ऐसी प्रवृत्ति नहीं होती। बचपन के बाद जैसे-जैसे प्रौढ़ होता है वैसे-वैसे अपने में सहयोगवादी प्रवृत्ति पर शंका होने लगती है और प्राथमिकता क्रम में वह प्रवृत्ति नीचे आती जाती है। फलस्वरूप देर हो जाती है और जो समीचीन परिस्थिति थी वह बदल जाती है। बदले जाने पर और भी शंका होने लगती है और इस प्रकार सही बात हो ही नहीं सकता इस जगह पर आकर बैठ गया है आदमी। हम सही कर ही नहीं सकते यह निर्णय कर बैठ गया है मानव। दूसरी ओर मनुष्य व्यवस्था को चाहता है। व्यवस्था कैसे सर्वसुलभ हो सकता है लोक व्यापीकृत हो सकता है? इसके लिए यह प्रस्ताव है। मनुष्य को इसके लिए समझदार होना ही पड़ेगा। मनुष्य अपने में मानवीयतापूर्ण आचरण को हर आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्यों में प्रमाणित करना ही व्यवस्था है इससे समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व फलवती होता है। इन्हीं फलों के लिए मानव चिरकाल से त्रस्त है, प्रतीक्षित है।

अभी मानव ने अपनी आवश्यकता को उपयोगी माना है दूसरे की आवश्यकता को उपयोगी नहीं माना। तभी तो एक आदमी दूसरे आदमी का, एक परिवार दूसरे परिवार का, एक समुदाय दूसरे समुदाय का, एक देश दूसरे देश का शोषण करता है। इन गवाहियों के आधार पर समझ में आता है कि मानव धर्म को, मानवीयतापूर्ण आचरण को हमें समझने पहचानने की आवश्यकता है और इसी शरीर यात्रा में चरितार्थ करने के लिए निष्ठा, साहसिकता जुटाना पड़ेगा। इसे संकल्प कहते हैं जो प्रमाणित होने के लिए निष्ठा जोड़ लेता है। व्यवस्था में जीने की निष्ठा प्रमाणिकता को अभिव्यक्त संप्रेषित करने के लिए निष्ठा। तीसरे जगह में निरंतर न्याय प्रदायी क्षमता को नियोजित करते रहेंगे, न्यायपूर्वक जीते रहेंगे, न्याय के लिए जियेंगे इसकी निष्ठा। इस ढंग से न्याय, धर्म, सत्य के लिए निष्ठा होगी और कहीं तो निष्ठा होते हमने देखा नहीं। पूजा, पाठ, ध्यान में निष्ठा ये सब जिस आवश्यकता के लिए हम करते हैं उसी को बुलंद करता है। उसी को वह वृहद बना देता है। इसके बाद है तीव्र जिज्ञासा। कहा गया है कि सर्वमोक्ष के लिए भी यही सब किया जाता है। इसी को अनादि काल से शुभ कार्य मानते आये हैं। लोक प्रचलन में इसे स्वीकृति दी है, सम्मान दिया है, इससे बहुत लोगों को राहत भी मिलती है। तात्कालिक राहत मिलने मात्र से हम व्यवस्था में जी गये ऐसा होता