जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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व्यवस्था में जीना शुरू करते हैं तो हमारी भागीदारी व्यवस्था में होती है। शिक्षा संस्कार में भागीदारी करते हैं तो निरंतर उपकार विधि से हम शिक्षा संस्कार संपन्न कर पाते हैं। शिक्षा संस्कार उपकार विधि से ही सार्थक होता है प्रतिफल विधि से सार्थक होता नहीं। प्रतिफल विधि से शिक्षा संस्कार देकर हम सत्य बोध, यथार्थता का बोध नहीं करा पाते हैं।

मैं इस विधि से शिक्षा संस्कार संपन्न करता हूँ। प्रतिफल (भौतिक वस्तु) मिलने का कभी मन में खाका आया ही नहीं। समझदारी को समझाने के लिए भौतिक द्रव्य की आवश्यकता नहीं है। शिक्षा कार्यक्रम में जो अध्यापक है वह अपने में स्वायत्त रहने, स्वालम्बी रहने की आवश्यकता है। समझदारी से यह आता है कि जो मानव स्वायत्त रहेगा उसका स्वावलंबी रहना स्वाभाविक है तो आवश्यकीय वस्तुओं को निर्मित करेगा, समर्थ रहेगा, उपकार करेगा ही। हर मनुष्य में सहयोग, उपकार प्रवृत्ति रहती है। इसका सर्वेक्षण कर सकते हैं यही उपकारवादी विधि की उपज स्थली है। स्वाभाविक रूप में बचपन की सहयोगी प्रवृत्ति को सुदृढ़ करते जायें तो प्रौढ़ावस्था में वह उपकारी हो ही जाता है। इतना ही हमको करना है शिक्षा में ये स्रोत को सार्थक बनाने की आवश्यकता एवं प्रावधान चाहिए जिसे मानवीय शिक्षा ही सार्थक बनायेगा। यांत्रिक शिक्षा एवं व्यवसायी शिक्षा इसे सार्थक बनायेगा नहीं। इस ओर ध्यानाकर्षण होने पर संभव है व्यवहार और व्यवस्था शिक्षा की ओर, प्रमाण शिक्षा की ओर आपकी प्रवृत्ति हो जाए। प्रमाण का आधार मनुष्य को होना है। यांत्रिक शिक्षा से, व्यवसायी शिक्षा से मानव सामाजिक होना तो बनेगा नहीं। इससे मानव के साथ अनाचार अत्याचार हो न हो किन्तु धरती के साथ अनाचार अत्याचार अवश्यंभावी है। यांत्रिक और व्यवसायी शिक्षा से यह धरती बर्बाद हुई है। अतः इसके विकल्प में मानवीय शिक्षा, व्यवहार शिक्षा, समाधान संपन्न शिक्षा, प्रमाण शिक्षा चाहिए। ऐसी शिक्षा के लिए मानवीयतापूर्ण आचरण को मध्य में रखा जाये। मानवीयता पूर्ण आचरण को संरक्षित करने के लिए मानव को समझदार बनाने के लिए संपूर्ण वांङ्मय तैयार किया जाये।

हमने देखा है मनुष्य आवेशात्मक और उत्तेजनात्मक कार्यों को तत्काल कर देता है। जहाँ कहीं भी समाधान, विवेक, प्रयोजनशील कार्य हैं उसे दस बार सोचता है तब