जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
अध्ययन करना पड़ेगा। मानव की इच्छा से अनुभव को बताया जा सकता है। प्रकाशित किया जा सकता है यही निष्पन्न होता है। घटना के रूप में सम्मुख है।
अनुभव के पश्चात आता है अनुभवों को प्रमाणों के रूप में प्रस्तुत करना। अभी तक प्रमाण के रूप में प्रस्तुत हुआ है यंत्र प्रमाण और पुस्तक प्रमाण। सत्य को प्रमाणित कर चुके ऐसा प्रमाण अभी तक हुआ नहीं। यंत्र प्रमाण परिवर्तनशील है यही सच्चाई है। वैज्ञानिक स्वयं कहते हैं कि यह अंतिम सत्य होगा जरूरी नहीं है। तो अंतिम सत्य, पहला सत्य, मध्य का सत्य, समीप का सत्य, दूर का सत्य इसे कैसे समझा जाए यह बड़ी भारी दुविधा हो गयी। सत्य होता है असत्य होता है। असत्य का मतलब मानव भ्रम में रहता है। असत्य नाम की कोई वस्तु अस्तित्व में बनी ही नहीं। हमारी नासमझी को, भ्रम को, असत्य कह सकते हैं। सत्य का अस्तित्व ही सर्वस्व है सत्य न कभी घटता है न बढ़ता है। पहला सत्य, अंतिम सत्य ऐसा कुछ होता नहीं। केवल निरंतर सत्य ही होता है। या सत्य को हम समझे नहीं रहते यही स्थिति मानव के साथ बनी रहती है। समझदारी के साथ ही सत्य समझ में आता है। सहअस्तित्व को समझना ही परम सत्य है।
अस्तित्व समझ में आने का फल ही है कि अस्तित्व स्वयं व्यवस्था में है। जब अस्तित्व स्वयं व्यवस्था के रूप में है तो मनुष्य व्यवस्था के रूप में होने के लिए प्रवर्तनशील होना स्वाभाविक है। तब हमें पता लगा मानव धर्म एक ही है व्यवस्था में जीना। मानव धर्म की सार्थकता व्यवस्था में जीना ही है। वर्तमान में विश्वास करना ही, सुखी होना है। किन्तु सुखी होने का जो उपाय भक्ति-विरक्ति में बताया, उसका प्रमाण बनता नहीं है। विरक्ति की अवस्था में साधना के अंत में समाधि अवस्था बनती है। समाधि में हम सुखी हैं कि दुखी हैं ऐसा कहना बनता नहीं है। सत्यापित कर नहीं सकते इसलिए कहते हैं सुख दुख से परे। आप भी अगर समाधि अवस्था को प्राप्त करेंगे तो आप भी यही देखेंगे। समाधि विचार मुक्त अवस्था हैं। इसको मैंने स्वयं देखा है। समाधि की घटना संभावित घटना है। निश्चित घटना नहीं है। किसको कब समाधि होगा यह कोई नहीं बता सकता। कैसे होगा यह भी निश्चयपूर्वक नहीं बताया जा सकता क्योंकि इसके लिए कई विधियाँ है, साधना विधि, आगंतुक विधि, योग विधि, ध्यान विधि, पूजा विधि, जप विधि।