जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
पारंगत होना ही अनुभव मूलक विधि से चिंतन बोध पूर्वक प्रमाणित हो जाता है उसके साथ साक्षात्कार किया अपने में निरंतर चलना शुरू करते हैं तो इस क्रम में तृप्ति बिन्दु मिल ही जाती है और प्रमाणिकता के साथ तृप्ति बिन्दु मिलता ही है तो प्रमाणिकता स्वयं में प्रमाण है। इस प्रकार अनुभव को संप्रेषित करने में समर्थ हो पाते हैं। फलस्वरूप अनुभव को मानव परंपरा में संप्रेषित, अभिव्यक्त कर अपने में तृप्ति पाते हैं यही हमारा धन है। जब हम अपने अनुभव को आपको संप्रेषित किया तो हम तृप्त हुआ यही हमारा अनुभव सहज प्रमाण है। यदि आप समझ गये तो यह और भी उत्सव की बात है और आप नहीं समझे तो हमारा तृप्ति हमारे पास रखा ही है। अनुभव को हम नित्य संप्रेषित कर सकते हैं।
अभी तक के आदर्शवादी विचार के अनुसार अनुभव को हम बता नहीं सकते। जीवन को पहचानने के आधार पर यह समझे कि जीवन में अनुभव एक अनुस्युत क्रिया है। अनुभव को प्रमाणित करना मानव परंपरा में ही संभव है, जिसमें किसी भौतिक द्रव्य की आवश्यकता नहीं है, केवल समझदारी की आवश्यकता है। जानने मानने की क्रिया जीवनगत है। संवेदना के आधार पर नहीं है इसलिए इसमें भौतिक द्रव्यों की जरूरत नहीं है पहचानने निर्वाह करने की बात आती है। व्यवस्था में जीने के स्वरूप में पहचानने, निर्वाह करने के क्रम में हम मानव के साथ होते हैं। अनुभव में शरीर का कोई नियोजन नहीं होता। सीधे-सीधे मन का उत्सव होता है। मन अनुभव से उत्सवित होकर संसार को बता देता है। तो उत्सवित रहने के लिए आत्मा में होने वाला अनुभव ही मूल तत्व है। आत्मा की महिमा ही मुग्ध होने और उत्सव होने की वस्तु रहती है। अनुभव की वस्तु रहती है। फलस्वरूप मन मानव को अर्पित कर देता है। इतना ज्यादा उत्सवित रहता है अतः अर्पित करना ही होता है। हम लोग भी जब बहुत वस्तु प्राप्त कर लेते हैं तो इसको अर्पित करते ही हैं। इसी प्रकार अनुभव इतनी बड़ी संपदा है जिसे मन समा ले, संभलता नहीं है। फलस्वरूप अनुभव को व्यक्त करना शुरू करता है।
ऐसा मैंने देखा है, समझा है, अनुभव किया है। जबकि विगत में बुजुर्ग कहते रहे हैं कि अनुभव को बताया नहीं जा सकता। इसमें किस चीज को माना जाए इसका