जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
ही। जीवन में अक्षय बल है ही, हमारी अक्षय शक्तियों को शरीर के पोषण संरक्षण और समाजगति के लिए हम नियोजित कर लेते हैं इसे हम कहते हैं समृद्धि। हमारी आवश्यकता दिन में एक बार टेलीफोन करने की है। फोन चौबीस घंटे चालू रहता ही है यही समृद्धि है। हमें दिन में एक बार कहीं जाना है। घर में सायकल दिन भर रखा ही है इसे समृद्धि नहीं तो क्या कहेंगे। खाना एक क्विंटल अनाज है 20 क्विंटल अनाज पैदा कर लेते हैं यही तो समृद्धि है। इन उदाहरणों से पता चलता है कि साधन अधिक है, आवश्यकता कम है। हम सभी आयामों में समृद्धि को अनुभव कर सकते हैं समृद्धि को अनुभव करना एक आवश्यकता है। भौतिक संसार का कोई उपयोग है तो केवल मानव समृद्धि का अनुभव करें। समृद्धि का अनुभव करने का एक ही तरीका है। हम परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर लें। समृद्धि के साथ व्यवस्था में जीने से समाधान की निरंतरता रहती है। समझदारी के उपरांत समाधान के बाद समझदारी नित्य हममें बना ही रहता है। इसके लिए कहीं दौड़ना नहीं पड़ता। यही सुस्वादन का आधार है। जब भी समस्या ध्यान में आता है सुस्वादन करते बनता नहीं। इस प्रकार समाधान के अर्थ में समझदारी, श्रम के नियोजन के आधार पर समृद्धि तथा सहअस्तित्व के साथ व्यवस्था में जीने से अभय का अनुभव होता है। इस प्रकार मैंने देखा है, समझा है, जिया है और आपको समझाने में समर्थ हूँ।
न्याय = अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में जीने योग्य हो जाते हैं। सत्य = प्रमाणिक होने योग्य हो जाते हैं।
प्रमाणिक होने का मतलब है हम जो समझे हैं उसे दूसरों को भी समझा सकते हैं। समझदारी के लिए एक मात्र सूत्र- व्यवस्था को समझना है, न्याय को समझना है और मानव को समझना ही है। इस समझने की विधि में मैं सफल व्यक्तियों में से हूँ। अनुभव के फलस्वरूप प्रमाणित होता है। अनुभव क्या है? हम माने रहते हैं जानते नहीं तो तृप्ति मिलती नहीं है। जाने रहते हैं मानते नहीं है तो भी तृप्ति मिलती नहीं है। जानने, मानने की तृप्ति मिलने पर पहचानने, निर्वाह करने में तृप्ति मिलती है। अभी तक हम पहचानने, निर्वाह करने का क्रम किया, हमें तृप्ति मिला नहीं, क्योंकि जाने माने नहीं रहा। तृप्ति बिन्दु कैसे पहचानेगा? समझदारी में