जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
महात्वाकांक्षा सीमित हो जाती हैं और थोड़े साधनों से हमारी आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं।
वस्तु मूल्य सतत् एक सा बना रहता है जैसे एक किलो तिल में जो भी मूल्य (उपयोगिता मूल्य) है, वह हमेशा ही बना रहता है। इसी प्रकार औषधि, धान, गेहूँ, वनस्पति में उनका मूल्य बना ही रहता है। उसे उपयोगिता मूल्य कहते हैं। उसके बाद मनुष्य जो उत्पादन करते हैं उसमें सुन्दरता मूल्य जैसे कार बनाते हैं, रेल बनाते हैं उसमें कला से सुन्दरता जुड़ जाती है। उपयोगिता के साथ सुविधा के अर्थ में सुन्दरता जुड़ती है तो सार्थकता है। इस ढंग से हमारा विश्लेषण का स्वरूप बनता है। हम उपयोगी हो जाते हैं, सार्थक हो जाते हैं, सुन्दर भी हो जाते हैं।
मूल्यों के मुद्दों पर जीवन मूल्य सुख, शांति, संतोष, आनंद के नाम से जाने जाते हैं। जो जीवन की तारतम्यता का ही नाम है। मन और वृत्ति में संगीत होने पर सुख, वृत्ति और चित्त में संगीत होने पर संतोष, चित्त और बुद्धि में संगीत होने पर शांति एवं बुद्धि और आत्मा में संगीत होने पर आनंद नाम दिया है। यह कुल मिलाकर जीवन संगीत है। जब हम अनुभव मूलक पद्धति से जीते हैं तो जीवन संगीत सहज है, स्वाभाविक है। जीवन की सहज अपेक्षा है, जीवन की सहज उपलब्धि, सार्थकता है। आस्वादन में जब मूल्यों का सुख होने लगता है उन मूल्यों में से मानव के साथ प्रेम, विश्वास, स्नेह, कृतज्ञता, वात्सल्य,... ये सब नाम दिया। सार्थकता के साथ संबंध को जब हम पहचानते हैं तो ऐसे मूल्य अपने आप जीवन में से निकलने लगते हैं। इसका उदाहरण जब माँ अपने बच्चे को पहचान लेती है तब ममता अपने आप उमड़ने लगती है। इसके लिए कोई पंचवर्षीय योजना की जरूरत नहीं पड़ती। मूल्य खोजने की या इकट्ठा करने की जरूरत नहीं है। मूल्य जीवन में भरे हैं वह संबंधों को पहचानने से नियोजित होंगे। संबंधों की पहचान परिवार के अर्थ में है, समाज के अर्थ में है, व्यवस्था के अर्थ में है और सहअस्तित्व के अर्थ में है यह चारों प्रकार से संबंध का खूँटा बना ही हुआ है।
हमको पारंगत होने की जरूरत है। जितने हम पारंगत होते हैं उतने ही विशाल रूप में हम अपने को प्रमाण प्रस्तुत करने में, सार्थकता प्रस्तुत करने में समर्थ होते हैं। इस प्रकार मूल्यों का आस्वादन करने लगते हैं। जीवन अपने से निष्पन्न मूल्यों