जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
कोई भी मुद्दा समझ में आते तक शोध, अनुसंधान कहलाता है। शोध या अनुसंधान की हुई वस्तु जब हम प्रमाणित करते हैं तो उसका शिक्षा संस्कार विधि से लोकव्यापीकरण करना आप पहले से ही जानते हैं। लोकव्यापीकरण करना पहला मुद्दा है। लोकव्यापीकरण करते समय जो शिक्षक होते हैं वे अध्यवसायी विधि से, व्यवहारिक विधि से तर्कसंगत, विवेक विज्ञान विधि से पारंगत होंगे। पारंगत होने का मतलब अवधारणा से हैं। अवधारणा के पश्चात हर आदमी अपने ही प्रवृत्ति, अपने ही प्रयास, अपने ही आवश्यकता से प्रमाणिक होना बनता है। प्रमाणिक होने की आवश्यकता हर आदमी में समाहित है। जब आपको यह महसूस होगा कि प्रमाणित होना नितांत आवश्यक है तो आप कहाँ चुप रहेंगे आप भी प्रमाणित होंगे ही। पहले अनुसंधान विधि से हम पाये हैं, मुझसे जो पायेंगे वह होगी अध्यवसायी विधि। अध्ययन के पश्चात स्वयं की जिम्मेदारी, बोध के पश्चात शुरू होती है। बोध के उपरांत प्रमाणित करना ही होता है। किसी अवधारणा को बोध के बाद प्रमाणित करने को जब उद्धत होते हैं और संसार में संप्रेषित करने के लिए दौड़ते हैं तो हम अनुभूत होते हैं। उसके बाद ही दूसरों को बोध होना बनता है। इस विधि से हर व्यक्ति अनुभवपूर्वक ही दूसरों को बोध करायेगा। बोलने मात्र से बोध होगा नहीं। कुछ बातें हम सुनते हैं फलस्वरूप हमें बोध हो जाता है और हम अनुसंधान में जुट जाते हैं मेरे विधि में भी ऐसे ही हुआ है। किन्तु अधिकांश लोग अध्ययन करेंगे, अनुभव करेंगे और प्रमाणित करेंगे। ऐसा मुझे समझ में आता है।
प्रश्न :- पहले से जो प्रचलित परंपराएं हैं और उनमें फँसा हुआ जो आदमी है उनके बारे में आपका नजरिया क्या है?
उत्तर :- देखिए, आपने दो शब्द प्रयोग किए हैं। 1. परंपरा 2. सामान्य आदमी। मैंने परंपरा को जो समझा हूँ उसे चार भागों में प्रस्तुत करता हूँ।
1. शिक्षा 2. धर्म गद्दी 3. राज गद्दी 4. व्यापार गद्दी। यही परंपरा के कर्णधार हैं। नौका हैं। इसी में प्रकारान्तर से हर व्यक्ति सफर करता है। मैंने जो देखा है परंपराएं पूर्णतः झरझर हो चुकी है। इसलिए इसमें सफर करने वालों को ये कुछ दे नहीं सकती। परन्तु ये चारों परंपराएं इतना ढींग हांकते हैं कि हम सब कुछ आपको