जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
मनाकार को साकार करने वाली बात दो विधा में होता है। एक सामान्य आकांक्षा (आवास, आहार, अलंकार) और दूसरा महत्वाकांक्षा (दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन)। जहाँ तक आचरण की बात है वह कहीं नहीं मिलता है। न तो शिक्षा में, न संविधान में मिलता है। संविधान में मानवीयता पूर्ण आचरण को मूल्यांकित करने की कोई व्यवस्था नहीं है। शक्ति केन्द्रित किसी भी संविधान में मानवीयता पूर्ण आचरण को प्रमाणित करने का प्रावधान होता ही नहीं है क्योंकि यह मानवीय संविधान होता ही नहीं है। इसलिए इसमें मानवीय आचरण हो ही नहीं सकता। मानवीयतापूर्ण आचरण को कोई प्रमाणित कर नहीं पाये। ऐसा मूल्यांकित करने का साहस जुटा नहीं पाये, ऐसे समझदारी को जोड़ नहीं पाये। इन कमियों को पूरा किये बिना मानव सुख से जी नहीं पायेगा और लड़ाई झगड़ा करता ही रहेगा। इस कचड़े से छूटने के लिए समझदारी ही एक उपाय है। इसके लिए शिक्षा का मानवीकरण करना अति आवश्यक है। शिक्षा में विज्ञान के साथ चैतन्य प्रकृति का, दर्शन के साथ क्रिया पक्ष का, मनोविज्ञान के साथ संस्कार पक्ष का, भूगोल और इतिहास में मानव तथा मानवीयता का समावेश करेंगे। इस ढंग से शिक्षा में मानवीयता के समावेश होने से मानव की प्रवृत्ति सहज रूप से व्यवस्था में जीने की, अपने को प्रमाणित करने की होगी। अपने पहचान के साथ समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व में जीने के अवसर आवश्यकता सफलता के स्थान पर हम पहुँच जायेंगे। इसलिए शिक्षा-संस्कार मानवीयता के साथ ही पूर्ण होता है, दूसरी विधि से नहीं होता। अभी हम जिन संस्कारों की बात करते हैं वे हमारी प्रचलित मान्यताओं पर आधारित हैं उनमें सार्वभौमता नहीं है।
तीसरा बिन्दु हैं ‘सत्य’। सत्य क्या है? अस्तित्व, सहअस्तित्व के रूप में समझ आना ही सत्य है। सत्य समझ में आने के बाद व्यवस्था समझ में आती है। अस्तित्व को सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में ही अध्ययन किया जाता है। मानवेत्तर प्रकृति और मानव एक दूसरे के पूरक हैं । इस विधि से जीने की कला को विकसित कर लेने पर मानवीय व्यवस्था ही होती है। यह समझ लेने के बाद हम न्याय में ही जियेंगे, व्यवस्था में ही जियेंगे, परिवार में, व्यवहार में प्रमाणिकता को ही प्रमाणित करेंगे और अन्यथा शक्ति केंद्रित शासन कुछ भी नहीं करेंगे। इस ढंग से आश्वस्त, विश्वस्त, समृद्धि सहज स्थिति में पहुँचते हैं।