जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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लिए दर्शन है। समझदारी का प्रमाण होना चाहिए। समझदारी के साथ हम अपने पहचान को बनाते हैं। तब सहअस्तित्व ही पहचान में आता है मूल्यों का निर्वाह करना ही बनता है और मूल्यांकन में उभयतृप्ति ही स्वाभाविक रूप में बनता है। व्यवस्था सहअस्तित्व में एक शाश्वत सत्य है। शाश्वत सत्य किस अर्थ में है? - अस्तित्व में हर एक अपने त्व सहित व्यवस्था है : जैसे बेल का झाड़ उसमें बेलत्व समाया रहता है। पीपल का झाड़ अपना आचरण बनाए रहता है। पीपल के पेड़ में पीपल के फल और पीपल के बीज होंगे, उसी के गुण, धर्म होंगे यही उसका आचरण है। इसी तरह पूरा वनस्पति संसार, जीव संसार का आचरण निश्चित है और ये अपने-अपने आचरण में प्रकाशित हैं। इसे ही कहते हैं त्व सहित व्यवस्था। मानव का आचरण अभी तक निश्चित नहीं हो पाया, क्योंकि मानव अभी तक व्यवस्था में जी नहीं पाया। अभी तक हम व्यवस्था नहीं पाये हैं किन्तु व्यवस्था की जरूरत है यहाँ पर आ गये हैं। व्यवस्था पाने के लिए हमको अपने त्व सहित व्यवस्था में जीना पड़ेगा। स्वत्व क्या है? स्व स्थिति रूप में और त्व गति रूप में स्पष्ट है ‘स्वत्व’ मानवीयता पूर्ण आचरण। मानवीयता में मूल्य, चरित्र, और नैतिकता है। मूल्य का प्रमाण है संबंध, मूल्य मूल्यांकन उभयतृप्ति। जो परिवार में होना ही है। उभयतृप्ति से कम में कोई परिवार है नहीं, उससे ज्यादा की जरूरत नहीं है, यही मानवत्व है। यह घटित होने के लिए स्वयं स्फूर्त विधि से आदमी मूल्यों में जियेगा। व्यवस्था में जीने से चरित्र की बात आयेगी। चरित्र को स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य व्यवहार के रूप में पहचाना गया है। नैतिकता (तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग और सुरक्षा) से अभयता बनती है। इस प्रकार से मानवीयता पूर्ण आचरण है। इसमें बहुत अच्छे ढंग से मानव आश्वस्तता पूर्वक जी सकता है।

इसके बाद आती है मानव की परिभाषा : “मनाकार को साकार करने वाले को मानव कहते हैं।” अर्थात मानव के मन में जो भी आता है (यथा यंत्र बनाना, घर बनाना आदि) उसको साकार करने वाला तथा मनः स्वस्थता का आशावादी है अर्थात् सुख की आशा में ही हर मानव जीता रहता है। मानव सुखधर्मी है। इस तरह से मूल्य, नैतिकता, चरित्र का स्वरूप समझ में आता है। परिभाषा के अनुसार जहाँ तक मनाकार को साकार करने वाली बात है उसको मानव पा गया है।