जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
ही नहीं सकता है। न्याय को पाने में हम सर्वथा असमर्थ रहे हैं। उसके बावजूद भी विकास का दावा करते हैं। विकास का क्या अर्थ होता है आप ही सोच लीजिए। भय और प्रलोभन से हर मानव छूटना चाहता है ये नियति सहज है। इससे मानव का भी कल्याण है। नैसर्गिकता का भी कल्याण है। इस तरह प्रयोजन के आधार पर संबंध है। प्रयोजन समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व है इसके लिये प्रक्रिया है व्यवस्था में जीना। व्यवस्था में जीने का मतलब है कि पाँचों आयामों में भागीदारी करना। पाँच आयाम है : 1. शिक्षा-संस्कार, 2. न्याय- सुरक्षा, 3. स्वास्थ्य-संयम, 4. उत्पादन-कार्य, 5. विनिमय-कोष।
इस विधि से हम परिवार में, व्यवस्था में जीने से पाँचों आयामों में भागीदारी करने से समग्र व्यवस्था में भागीदार होते हैं। इस तरह से मानव के लिये निरंतर उमंग, खुशहाली, अटूट साहस बन जाता है। न्याय के बाद आता है, धर्म। धर्म का मतलब अनुभव प्रमाण बोध जो बुद्धि में होता है अर्थात् समाधान। समाधान का मतलब ही मानव धर्म है, व्यवस्था में जीना ही मानव धर्म है, यही अभ्युदय है। अव्यवस्था में मानव जीता है तो समस्या से ग्रसित हो जाता है व्यवस्था में जब जीता है समाधानित रहता है। आदमी समस्याग्रस्त रहना चाहता नहीं है। अतः आदमी समाधानित रहना चाहता है। समाधान = सुख, मानव सुख धर्मी है। समस्या = दुख, समस्या को आदमी चाहता नहीं। भय और प्रलोभन के आधार पर समाधान होता नहीं और सारा संसार तुला हुआ है कि भय और प्रलोभन के आधार पर समाधान हो जाए। भय और प्रलोभन के आधार पर व्यवस्था को समीकरण करने के लिए हम आज भी शिक्षण प्रशिक्षण करते हैं जबकि इससे व्यवस्था हो नहीं सकती। कहीं एक जगह पर भय और प्रलोभन के आधार पर कुछ बनता है तो उसी क्षण से उसके टूटने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। अतः मूल्य और मूल्यांकन के आधार पर ही व्यवस्था होगी। परिवार व्यवस्था, प्रौद्योगिकी, प्रशासन, राज्य, व्यवस्था सभी स्तर पर व्यवस्था इसी विधि से होगी। व्यवस्था का मतलब यही है मानव अपनी प्रमाणिकता को प्रस्तुत कर सके, न्याय का निर्वाह कर सके और व्यवस्था में भागीदारी कर सके।