जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
हमारे सम्मुख स्थित जंगल, पहाड़, खनिज जीव सहअस्तित्व के आधार पर ही अपने वैभवों को प्रकाशित कर दिये हैं। सहअस्तित्व विधि से ये समृद्ध है। सहअस्तित्व नहीं होता तो किसी को संरक्षण मिलना ही नहीं था। इसका मूल तत्व यही है सत्ता में एक-एक वस्तु (इकाईयाँ) संरक्षित नियंत्रित और ऊर्जा संपन्न है। जो अणु व प्राणकोशाओं के रूप में कार्यरत है उनकी सीमा उतनी ही है। इसमें भी सहअस्तित्व वैभवित है। एक कोशा के साथ दूसरे कोशा का सहअस्तित्व होने के कारण बहुकोशा विधि से निश्चित रचना रचित कर पाये हैं। ये रचना करने की विधि कोशा में स्थित प्राण सूत्र में निहित रहता है। इसका नाम है रचना विधि। इसमें निरंतर शोध होता रहता है। इसी गवाही के स्वरूप अनेक प्रकार की रचनायें हमारे सम्मुख है। इस गवाही के साथ हम आश्वस्त हो पाते हैं प्राणसूत्र में भी और परमाणु अंशों में भी शोध कार्यक्रम है।
मानव के शोध कार्य का जो स्रोत है कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता। उसके बाद विचार शक्ति, इच्छा शक्ति, संकल्प अनुभव प्रमाण शक्ति ये सब शक्तियाँ अपने आप में अनुसंधान करने के लिये, शोध करने के लिये तत्पर रहते हैं। इन तत्परता के साथ ही इन दस क्रियाओं के साथ जीने वाली क्रिया, जीने वाला वैभव प्रमाणित हो पाता है। इन दस क्रियाओं में मुख्य मुद्दा है अनुभव होना और अनुभवमूलक विधि से जी पाना। अनुभव मूलक पद्धति से जीने के लिये स्वाभाविक रूप से स्रोत बना हुआ है। जीवन अनुभव करना चाहता ही है। समझदार होना ही चाहता है अपने आप को समझदार, अनुभवशील, न्यायाविद्, चिंतनशील मानता ही है। अस्तित्व में संबंध चारों तरफ फैला रहता है उसको जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना फलस्वरूप उभयतृप्त होना ही न्यायविद् का प्रमाण है।
मानव अपने में स्वतंत्र है समझदार बनना है या नहीं बनना है। यदि समझदार बनना है तो सहअस्तित्व में समझदार बनने की परिस्थितियाँ समीचीन है। समझदार बनने की पूरी सामग्री है और समझदार नहीं बनना चाहता है उसके लिए भी सामग्री है किन्तु परिणाम दोनों का भिन्न है। नासमझी में शुभ, सुख घटित होने वाला नहीं। मेरे अनुभव अनुसार हम किसी से बंधकर, लदकर और लड़कर जीना नहीं चाहा वैसे ही आप भी किसी वस्तु से बंधकर, लदकर और लड़कर जीना