जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
नहीं चाहेंगे और कोई भी फंस कर जीना नहीं चाहता। इस तरह हर व्यक्ति कहीं ना कहीं समझदार होना ही चाहता है। न्याय समाधान में एकसूत्रता पूर्वक जीना चाहता है।
संबंध जो है सभी ओर जुड़ा ही है इसे हम भ्रमवश पहचानते नहीं है यही परेशानी का घर है। जिस क्षण से हम संबंधों को जानना-पहचानना शुरू किया उसी मुहूर्त से हममें अपने आप से जीवन सहज मूल्यों का निष्पत्ति होती है। जैसे ही हमसे संबंधों को पहचानना होता है मूल्य अपने आप से बहने लगते हैं फलस्वरूप निर्वाह होता है उसका मूल्यांकन होने पर उभयतृप्ति होता है, इस तरह न्याय प्रमाणित होता है। संबंध को पहचानने कि स्थिति, पहचानने की विधि बनती है प्रयोजन के आधार पर। संतान ‘मां’ को पहचानते हैं पोषण के अर्थ में। संरक्षण स्रोत को ‘पिता’ कहते हैं। प्रमाण स्रोत को ‘गुरू’, जिज्ञासा स्रोत को ‘शिष्य’ कहते हैं। प्रचलित रूप में कहा जा रहा है कि हमें यंत्रवत् रहना है, यांत्रिकता में प्रवीण रहना है। क्या मानव एक यंत्र है? इसका उत्तर देने वाला कोई माँई-बाप है? मैं कहता हूँ मानव यंत्र नहीं है। सारे के सारे यंत्रों का रचयिता मानव है। जितने भी अभी तक यंत्र रचे गये हैं सभी यंत्रों का जनक मानव है। इसलिये यंत्र मानव को पा नहीं सकते। मानव से कम ही यंत्र बनता है इसलिये मानव का अध्ययन यंत्र कर नहीं सकता। दूसरा सभी यंत्र जड़ प्रकृति से बनता है। अभी तक जितने भी यंत्र बनाये हैं पदार्थावस्था की वस्तु से ही बना है। प्राणावस्था की वस्तु से एक भी यंत्र नहीं बना पाये हैं। ये याद रखने की बात है। मानव तो बहुत दूर की बात है। अभी एक भी यंत्र प्राणकोशाओं से नहीं बना पाये हैं और डींग हांकते हैं कि मानव एक यंत्र है। मानव परंपरा के लिये कहाँ तक उचित होगा। अभ्युदय के अर्थ को कैसा पूरा करेगा। अभी तक कितने गहरे यह बात बैठी है कि मानव एक यंत्र है, भोग के लिये वस्तु है। अब तक ऐसा ही सोचा गया है जबकि ऐसा नहीं है। जब कोई अपने बच्चे के साथ जीता है मैं यंत्रधर्मी नहीं हूँ ऐसा लगता ही है।
मुझे मानव संचेतना सहित ही पहचान में आया। संज्ञानशीलता और संवेदनशीलता का संयुक्त रूप ही संचेतना है। संवेदनाओं को नहीं पहचानता हूँ तब यंत्रवत् हो जाता हूँ यांत्रिकता में हमको अभी तक तो कोई तृप्ति मिली नहीं। हम यंत्रवत् कार्य