जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
विचार हुआ। हमारा स्वाभाविक रूप में उत्साह बढ़ा। प्रमाणों को खोजने के आधार में ही ये सब पुनर्विचार करने की प्रवृत्ति बनी उसके परिणाम स्वरूप जो कुछ हुआ उसे मानव सम्मुख रखने के लिए हम प्रवृत्त है।
जैसे सात सौ करोड़ आदमी के सम्मुख रास्ता बंद हो चुका है, उसी भांति मेरे साथ भी रहा होगा। इसको आप अन्दाज कर सकते हैं। सभी मानवों जैसे ही स्थिति में मैं भी था। संसार में प्रचलित शिक्षा संस्कार, कर्मकांड संस्कार, इसी जंगल से मैं भी गुजरा हूँ। गुजरने के बावजूद हमारी स्वीकृति ना तो मेकाले शिक्षा के साथ रही ना परंपरागत आदर्शवादी संस्कार के साथ रही। हमारी आस्था इसमें स्थिर नहीं हो पायी। यह हमारा सम्पूर्ण उद्देश्यों की ओर दौड़ने का आधार और कारण बना। हमारी आस्था ना शिक्षा परंपरा में, ना संस्कार परंपरा में बनी इसलिए हम शायद रिक्त हो गये और यही हमारा अपने ढंग से दौड़ने का आधार बना। दो घटनाएं तो घट चुकी। इसमें एक घटना जीवन को समझना महत्वपूर्ण रही। जीवन में ही समझदारी समायी है एवं समझदारी पूर्ण विधि हमारे हाथ लगी। मान्यताओं, आस्थाओं के आधार पर हम साढ़े चार क्रियाओं में जीते हैं। आस्था मतलब बिना जाने, मान लेना। जिसको जानने के बाद मानते हैं उसका नाम होता है विश्वास। विश्वास के साथ जीने में दस क्रियाएं प्रमाणित होती है। मैं दसों क्रियाओं को प्रमाणित करता ही हूँ आप भी कर सकते हैं। सहअस्तित्व को प्रमाणित करना ही है। इसी क्रम में ये अणु, परमाणु एक दूसरे को पहचानते हुए व्यवस्था के रूप में होते हैं। ग्रह, गोल, वनस्पति, पदार्थ ये सभी सहअस्तित्व को प्रमाणित करते हुए व्यवस्था में हैं। सहअस्तित्व प्रमाणित करने के क्रम में ही और शुद्ध रूप यही है कि सभी इकाईयाँ अपने में ऊर्जा सम्पन्न हैं । ऊर्जा सम्पन्न रहने की ही यह अस्तित्व अनुपम अभिव्यक्ति है। सभी परमाणु अंश, सभी परमाणु, सभी अणु अपने में व्यवस्था की ओर उन्मुख है। यही बात है जो मानव को प्रेरित करने के लिए मुख्य मुद्दा है। इस मुद्दे पर मेरा अनुमान ऐसा है कि हर ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी को सहअस्तित्ववादी मानसिकता की आवश्यकता है। इसी मानसिकता के साथ हम मानव बन सकते हैं। मानव से कम में हमारा कोई ऐश्वर्य उदय होने वाला नहीं है।