जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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सोचना है कि प्राकृतिक रूप में जो व्यवस्था है उर्वरक बनने की उसी से इस धरती की उर्वरकता बच सकती है। धरती की सतह को जिस चीज की जरूरत नहीं है नदियाँ उसे समुद्र में ले जाकर दे देती है। तो अब कैसा संतुलन बना? झाड़ वनस्पति ये सब धरती की सतह पर सघन रूप में रहने की स्थिति में ही ये सब चीज संतुलित रहेगी। अब हम क्या करते हैं एक समस्या को लिए एक और समस्या पैदा करते हैं। इस तरह समस्या से समस्या ढकता नहीं है। किसी एक छोटी समस्या को कितनी भी बड़ी समस्या से ढका जाए किन्तु समस्या ढकती नहीं है। ये सब कोई शिकायत या निन्दा करने की बात नहीं है। घटित घटनाओं के आंकलन के साथ पुनर्विचार करने का प्रस्ताव है और कोई कारण नहीं है यथास्थिति व आवश्यकता का वर्णन है।

इस प्रस्ताव में कुल मिलाकर जीवन की दसों क्रियाओं को परम्परा में प्रमाणित करना है। दसों क्रियाओं के लिए समझदारी को चेतना विकास मूल्य शिक्षा पूर्वक प्रमाणित करना है। जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना है। जानना, मानना का तृप्ति बिन्दु जागृति व समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सहज प्रमाण ही है। यही अनुभव सहज प्रमाण है। इसलिए हर मानव अनुभव मूलक विधि से अपने को सार्थक बना सकते हैं। इसमें एक यह भी उपकार है कि इस प्रस्ताव में पुरोहितवाद का कोई स्थान नहीं है और न ही शक्ति केन्द्रित शासन का। मैं ही सबको तार दूँगा इस बात से भी मुक्त है। हर व्यक्ति अपनी समझदारी से भ्रम मुक्त हो सकता है। एक व्यक्ति तर जाएगा तो संसार तर जायेगा बात पर्याप्त नहीं हुआ, यह देख लिया गया है। इस प्रस्ताव में जो समझेगा वह तर जायेगा। अभी तक सारे सद्ग्रन्थों में आश्वासन तो बहुत है किन्तु प्रमाण के रूप में धरती पर एक भी आदमी नहीं निकला। तो हम क्या करेंगे परंपरा में जो चीज आती नहीं है उसका कोई स्थान नहीं है। एक आदमी पहले बहुत कुछ पाया था या खोया था इसको हम कैसे सत्यापित करें, पर जो सुलझने का तरीका होगा वह परम्परा में आयेगा ही। इसको इस तरह भी देखा जा सकता है कि अभी तक आदमी बहुत सारा गलती व अपराध किया उसकी कोई परम्परा नहीं होती। परंपरा जब भी होती है समझदारी पूर्वक ही सफल होना सहज है। मानव मानवीयता पूर्वक जीने की कला ही परम्परा होती है। समझदारी की परम्परा अध्यवसायी विधि से हो सकती है। जीने की कला