जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
परिवार विधि से, समाज विधि से, व्यवस्था विधि से हो पाती है। इसी प्रकार मैं भी अपने जीने की कला को समझदारी के आधार पर ही पाया। समझदारी से जो जीने की कला आती है वह निश्चित रूप से समाधान व व्यवस्था रूप में जीना है।
न्याय प्रमाणित हुए बिना आदमी सामाजिक होता नहीं और न्यायविहीन आदमी समुदाय बनाकर कभी भी वाद-विवाद विहीन हो नहीं सकता। ऐसे समुदाय में द्रोह-विद्रोह, संघर्ष और युद्ध होता ही है। शोषण होता ही है और वाद-विवाद, द्रोह-विद्रोह, संघर्ष, शोषण होते हुए आदमी सामाजिक बन गया ऐसे कैसे मान लिया जाए। यदि समुदायों के संघर्ष को ठीक माना जाए तो बाद में हर व्यक्ति युद्ध करे, मरे-मारे ऐसा भी हो सकता है। इसके लिए छूट होना चाहिए, उसको क्यों बांध रखते हैं। तो इस मुद्दे पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। इसको हम ठीक से हृदयंगम करते हैं तब देखते हैं कि हम अभी तक जो किए उसमें हम पार नहीं पा सके तो हम सोचने के लिए तैयार हो गये। यह मानव का स्वभाव सहज है कि मानव सोचता ही है। हर व्यक्ति सोच सकता है, शोध कर सकता है। अपने शोध से स्वयं तृप्त होना भी आवश्यक है दूसरों की तृप्ति का स्रोत बनना भी आवश्यकता है।
यहाँ से शुरू करने के लिए क्या किया जाये? तो पहला मुद्दा समझदारी सहज शिक्षा-संस्कार विधि से सर्वसुलभ हो जाए। समझदारी के साथ जीने की कला को अपनाया जाये। जीने की कला में धरती जल व वायु के साथ कैसे जिया जाये, वनस्पति के साथ कैसे जिया जाये, पशु संसार के साथ कैसे जिया जाये और मानव के साथ कैसे जिया जाये। इनमें से किसी एक को भी नहीं छोड़ा जा सकता, सबके साथ जीना ही है। हर व्यक्ति अनुभव कर सकता है, मूल्यांकन कर सकता है। यह दावा हर मानव करता ही है। हर मानव में दावा करने की यह प्रवृत्ति सहज है, थोपा हुआ किसी को स्वीकार नहीं है, हर व्यक्ति में यह मूल रूप में है, उत्साह है, स्वयंस्फूर्त है। हर मानव की ये आवश्यकता है। इतना सहज स्रोत रहते हुए भी हम कैसे अपेक्षा कर लिए कि हम दूसरों को तारूँगा। यह एक आश्चर्यजनक घटना है और इसमें हम सब भी आस्था करते रहे हैं। अब यह सोचना है कि आश्वासन के ऊपर आस्था करना है या प्रमाणों के आधार पर विश्वास करना है। मुझे आरम्भिक काल से जैसे ही प्रवृत्ति हुई, प्रमाणों के आधार पर विश्वास करने के लिए हमारा