जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

Back to Books
Page 46

जीवन का स्वरूप

मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि, आत्मा का अविभाज्य स्वरूप ‘जीवन’ है ये कभी अलग-अलग होते नहीं है।

मन का दो कार्य रूप है - चयन, आस्वादन। वृत्ति का दो कार्यरूप है -विश्लेषण, तुलन। चित्त का दो कार्यरूप है -चित्रण, चिंतन। बुद्धि का दो कार्यरूप है - ऋतम्भरा (संकल्प), बोध। आत्मा का दो कार्यरूप है - प्रमाणिकता, अनुभव।

ये दस क्रियाओं के रूप में हर जीवन सतत कार्यरत है। ये दस क्रियायें करते हुये जीवन भ्रम या जागृति के रूप में प्रमाणित होते हुये पाया जाता है। भ्रमित अवस्था में संवेदनशीलता से अनुप्राणित रहता है और दस क्रियाओं में से जीव चेतना वश साढ़े चार क्रिया ही कार्यरत रहते हैं। बाकी क्रियाओं को समझने की वस्तु रहती नहीं है इसलिये जीवन में अंतर्विरोध बना ही रहता है। ये साढ़े चार क्रियायें है - चयन, आस्वादन, विश्लेषण, चित्रण एवं आधा तुलन। चयन, आस्वादन संवेदनशीलता के आधार पर होती ही है। हाथ, पैर, नाक, कान, आँख, जीभ आदि को अच्छे लगने वाली वस्तु को अपनाते हैं और खराब लगने वाली वस्तु को छोड़ देते हैं। संवेदनशीलता के पक्ष में ही तुलन नाम की क्रिया करता है प्रिय, हित, लाभ के रूप में। इसी के अर्थ में विश्लेषण कर लेता है और इसके लिये चित्रण क्रिया को भी संपादित कर लेते हैं। कुल मिलाकर इंद्रिय-संवेदना को ही जीवन मानते हुये हम जीने के लिये तत्पर हो गये हैं। इसी का नाम है ‘भ्रमित जीवन’। इससे अंतर्विरोध होता ही रहता है। ये ठीक है या गलत है या ज्यादा है कम है, इस तरह का सारा संकट मानव के सामने रखा ही रहता है। मानसिकता आदिमानव जैसी ही है। वस्तुएँ ज्यादा हो गई हैं। मानव मानसिकता के लिये और जो साढ़े पांच क्रियायें हैं उन्हें जागृत होने की आवश्यकता है वह समझदारी से जागृत होती हैं।

पाँच संवदेनाओं और चार विषयों को पहचानने निर्वाह करने के लिए साढ़े चार क्रियायें पर्याप्त हैं, इसी में मानव पशु व राक्षसवत् जीता है। मानवत्व रूप में जीना केवल साढ़े चार क्रियाओं से बनता नहीं। उससे संतुष्टि होती नहीं। अब जो मूल