जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
मुद्दा जीवन की सभी दसों क्रियाओं को व्यवहार में प्रमाणित करना ही जागृति है। थोड़े भाग को प्रमाणित करने से जागृति वाली बात बनती नहीं है। जैसे शरीर स्वस्थ है तो पाँचों ज्ञानेन्द्रिय और पाँचों कर्मेन्द्रिय सटीकता से एक दूसरे के तालमेल से कार्य करते रहते हैं। यदि इसमें से हाथ काम न करता हो पैर न काम करता हो लूला-लंगड़ा ही कहेंगे। उसको स्वस्थ आदमी कहेंगे नहीं।
जागृति तब तक नहीं हो सकती जब तक जानने मानने की क्रिया को हम पहचानने, निर्वाह करने की क्रिया के साथ जोड़ नहीं पायेंगे। अभी तक संवदेनाओं को पहचानने निर्वाह करने की क्रिया विधि के साथ ये साढ़े चार क्रियाओं को हम सब प्रमाणित कर दिये, आगे की क्रिया व्यवहार में प्रमाणित होती है यही जागृति का आधार है। यह जानने मानने की विधि से ही होगी। मानवेत्तर संसार पहचानने निर्वाह करने के क्रम में नियमित रहता है, नियम के अनुसार कार्य करता है इस विधि से व्यवस्था है।
संवेदनशीलता पूर्वक जीने की जो पराकाष्ठा है वह जीव संसार में पूरा हो जाता है। यदि संवेदनशीलता में ही अंतिम मंजिल होती तो मानव के होने की जरूरत ही नहीं बनती है। अस्तित्व में निष्प्रयोजन की कोई स्थिति नहीं है। पूरे अस्तित्व में, सम्पूर्णता में एक तालमेल, एक सूत्रता, एक संगीतमयता पूर्वक व्यवस्था का स्वरूप है। हर गति, हर स्थिति, हर अवस्था एक सार्थकता सूत्र से जुड़ा ही है। सार्थकता क्या है व्यवस्था में आचरण होना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना। जीवन जब जागृत होता है अनुभव और प्रमाणिकता मूलक हमारा बोध संकल्प होता है और उसी के अनुरूप में चिंतन, चित्रण सम्पादित करना शुरू करता है। उसी आधार पर तुलन, विश्लेषण और चयन, आस्वादन होता है। अभी हम संवेदनशीलता को सर्वोपरि मूल्यवान मान करके हर विचार हर योजना को तैयार करते हैं। जबकि जागृति में मूल्य और मूल्यांकन ही आता है। यही जागृति का व्यवहारिक स्वरूप है। संवेदनशीलता मूलक विधि से हमने जीने की कला को विकसित करने का काम पूरा कर लिया है। इस विधि से जीने के लिए जो जरूरत की वस्तुएं है वे मानव को छोड़कर बाकी संसार है। जिसमें जीव, वनस्पति और पदार्थ संसार है। इन तीनों को आदमी ने कैसा उपयोग किया, आप सबको विदित है। इसमें कैसे ज्यादा से