जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
अभी तक सुविधा संग्रह के लिये इकट्ठा किया है। उसका कारण है कि सुविधा संग्रह के प्रयोजन को जानने-मानने के लिए ये हम जितना पीछे रहे हैं सुविधा संग्रह के लिये उतना ही विवश होते गये हैं। सुविधा संग्रह में कहीं तृप्ति बिन्दु नहीं मिला। जबकि इसके व्यवहारिक प्रयोजन को समझने पर समझ आता है कि यह शरीर के पोषण-संरक्षण के लिये आवास, आहार, अलंकार (साधन) की जरूरत के रूप में है। समाज गति के लिये दूरगमन, दूरश्रवण, दूरदर्शन की आवश्यकता स्पष्ट होती है। ये सभी चीजें उपलब्ध हो गई हैं और सुविधा-संग्रह के आधार पर मानव तृप्त नहीं हुआ। यह एक भारी विडंबना की बात है।
जीवन की और दो क्रियाओं ‘विश्लेषण’ और ‘तुलन’ हैं। विश्लेषण क्रिया को जीवन अपने बलबूते पर जो कुछ भी हो सकता है करता ही है। तमाम विश्लेषणों में प्रयोजनों को ही पहचानने की बात आती है। प्रयोजन मूलतः समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व पूर्वक जी कर प्रमाणित करना है। इसके विपरीत ले जायें तो भोग, अतिभोग जहाँ मानव कहीं टिक नहीं पायेगा।
अभी विज्ञान निष्कर्ष निकालता है सभी मानव कुछ देर में मर जायेंगे और धरती नष्ट हो जायेगी। वह हो ही जाना है। धरती की विधि से सोचें तो धरती सर्व-समृद्ध होने के पश्चात् ही मानव आवास के लायक होने के बाद धरती पर मानव का अवतरण हुआ। मानव को शनै:-शनै: जीव चेतना क्रम में जागृत होने का अवसर प्रदान किया। मानव जागृत होने के स्थान पर भोग-अतिभोग की ओर अग्रसर हुआ। भोग-अतिभोग को दिशा बनाने के कारण मानव सुविधा-संग्रह के अंतहीन सिलसिले की ओर अग्रसर हुए। सबकी सुविधा संग्रह की हविश पूरा करने की सामग्री इस धरती में नहीं है। इसलिये कहीं ना कहीं यह हविश आदमी को डुबायेगी। इसलिये सारे सुविधा संग्रह को प्रयोजन सम्मत करना जरूरी है। प्रयोजन सम्मत करते हैं तो शरीर पोषण-संरक्षण और समाज गति ही निकलता है। समाज गति की ओर जाते हैं तो अखण्ड समाज में भागीदारी करना, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करना ही निकलता है। इन प्रवर्तनों में आदमी जीने जाता है तब समाधान-समृद्धि पूर्वक सुख-शांति सम्पन्न होकर जीना बनता है। इस विधि से अस्तित्व में जागृति को प्रमाणित करना ही जीवन का उद्देश्य है। इसमें अद्भुत