जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

Back to Books
Page 19

को स्वीकार करने के लिए तैयार हुए कि इस पूरी चीज को मानव के पास पहुँचाना चाहिए। उसके बाद उसको शास्त्र के रूप में पा गये यानि जीने की कला के रूप में। अभी जो कुछ भी अर्थशास्त्र है वो लाभोन्मादी है। उससे तो आदमी सुखी हो नहीं सकता। सभी मानव के सुखी होने का रास्ता है तो केवल आवर्तनशील अर्थशास्त्र विधि से। स्वाभाविक है और व्यवस्था के अनुरूप है।

दूसरा शास्त्र लिखा है - “व्यवहारवादी समाजशास्त्र”। मानव न्ययायपूर्वक व्यवहार से ही संतुष्टि पाता है, मानव के साथ ही व्यवहार करता है, व्यवहार न्यायपूर्वक होता है तो संतुष्टि होती है। इस प्रबंध का मूल ध्रुव बिन्दु है - मानवीयतापूर्ण आचरण फलस्वरूप राष्ट्रीय आचार संहिता के रूप में हम मानवीय आचरण को स्वीकार कर सकते हैं। सभी देशों के देशवासी संविधान के रूप में स्वीकार सकते हैं। जिससे अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था होगी।

इससे संसार में एक समुदाय का दूसरे समुदाय के बीच जो युद्ध का आतंक बना रहता है उसका निवारण हो सकता है। जब तक युद्ध के प्रयास होते रहेंगे तब तक मानव धरती को तंग किये बिना जी नहीं सकेगा और ज्यादा तंग करने के लिए अधिक बुद्धि का प्रयोग करना पड़ेगा। इससे विज्ञान बुद्धि का भी मूल्यांकन हो जाता है। युद्ध के संरक्षण के लिए बहुत सा विज्ञान और वैज्ञानिक लगे हुए हैं और इसके लिए पैसा पाते हैं अपने को धन्य मानते हैं। धरती को बर्बाद करना है बात इतना ही है। इससे मुक्ति पाना ही पड़ेगा हमको और इसके लिए समझदार होना ही है और कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

तीसरा शास्त्र लिखा है - “मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान” इसमें यह बताना चाहा है कि संचेतना का आधार जीवन है, यह विकसित चेतना ही है। शरीर, संचेतना को अर्थात् पूर्णता के अर्थ में चेतना को मानव परंपरा में व्यक्त करने का माध्यम है। इस बात को समझाने की कोशिश की है। उसको आप लोग जांचेंगे। यदि आपको समझ में आ गया तो हमारा लिखना सार्थक हो गया। इस ढंग से दर्शन, विचार, शास्त्र तीनों चीजों को दिया। शास्त्रों का मूल आशय है कि मानव को व्यवस्था में जीना है। जीने के लिए कौन सा तरीका है? विधि क्या है? नीति क्या है? प्रणाली