जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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पर ध्यान देने की बात है। जब भी इस समस्या से बचना चाहेंगे आदमी को समझदार होना ही होगा। दूसरा कोई ठौर नहीं है।

नासमझी से अपराधों का रोकथाम होता नहीं चाहे राष्ट्रीय संविधान विधि से ही हो, अपराध तो अपराध ही है। अभी धरती की छाती पर जितने भी राष्ट्र में मानव निवास करते हैं सभी राष्ट्रों का अपना एक संविधान रहता है। सभी राष्ट्रों के संविधान में तीन मुख्य मुद्दे हैं और एक वचन है, महावाक्य है, वो है शक्ति केन्द्रित शासन। शक्ति केन्द्रित शासन की जो व्याख्या है उसमें गलती को गलती से रोकना, अपराध को अपराध से रोकना, युद्ध को युद्ध से रोकना यही तीन कर्म है। इन तीनों कर्मों से कहीं भी ऐसा नहीं दिखता है कि हम अपराध से मुक्ति पा गए। ये तीनों चीजें अपने आप में हर दिन, हर माह, हर वर्ष, हर शताब्दी और मजबूत होती जाती है। युद्ध की मजबूती, अपराधों की विपुलता, गलतियों की कतार ये ही इतिहास में भरी हुई हैं। पन्ने रंगे हुए हैं। ये गवाही है। अगर हम इनका समाधान खोजते हैं तो इसके मूल में पाते हैं इन सभी परिस्थितियों को बनाने वाला केवल आदमी ही है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण है ‘धर्म संविधान’। सम्पूर्ण धरती के जितने भी धर्म संविधान हैं उसमें यह माना गया है आदमी जो मूलतः पापी, अज्ञानी, स्वार्थी होता है। जबकि वास्तविकता इससे भिन्न होती है। तो पापी को तारने के लिए, अज्ञानी को ज्ञानी बनाने के लिए, स्वार्थी को परमार्थी बनाने के लिए सभी धर्म संविधान अपने-अपने ढंग की युक्तियाँ, चरित्र, कर्तव्य, दायित्व और कर्मकाण्ड आदि कुछ भी बनाये है। यह भी एक बहुत स्पष्ट घटना है। इनका परिणाम क्या हुआ? अभी तक कोई अज्ञानी ज्ञानी हो गया ऐसा मानव जाति ने पहचाना नहीं। स्वार्थी परमार्थी हो गया ये भी प्रमाण मिला नहीं। पापी पाप से मुक्त हो गया यह भी प्रमाण नहीं मिला।

मैं आपको इसके पहले कुछ बताया था। समाधि पर्यन्त तक साधना है। साधना काल में, मानव में वैचारिक रूप में समाधानित होना बना ही नहीं रहता, मन उद्वेलित रहता ही है, क्योंकि मानव समस्या से पीड़ित होकर ही तो समाधि की ओर दौड़ता है। समाधि तक प्रयत्न करते हुए ही आदमी की ऊँचाई दिखाई पड़ती