जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

Back to Books
Page 13

दूसरा स्वर्ग की जो कल्पना थी, जिस सुख की कामना थी वो विज्ञान से प्राप्त सुविधाओं में लोगों को मिलने लगा। उसको भी खूब चख लिया आदमी ने। इसमें भी विज्ञान की उपलब्धियाँ मानव के लिए पर्याप्त नहीं हुई। पुनः झंझट में फंसने लगा मानव। इस तरह मानव झूलता ही रहता है भक्ति-विरक्ति और संग्रह सुविधा के बीच। संग्रह-सुविधा से जब आदमी त्रस्त हो जाता है तब भक्ति-विरक्ति की ओर दौड़ता है और जब भक्ति-विरक्ति से पैर ठंडे पड़ जाते हैं तो संग्रह-सुविधा की ओर दौड़ता है। और दोनों सुनने में अच्छा लगता है किन्तु अच्छा लगना और अच्छा होने में कितनी दूरी है।हर व्यक्ति सोच सकता है। अच्छा लगने मात्र से अच्छा होता नहीं है। जैसे ठंडा पानी, पीना अच्छा लगता है परंतु इससे अच्छा ही होता है ऐसा कोई नियम नहीं है। ठंडा पानी पीने से कोई रोगी हो सकता है, किसी को खाँसी हो सकती है। अतः ठंडा पानी अच्छा लगना या ठंडा पानी अच्छा न लगना दोनों सार्वभौम नहीं हो सकते हैं। यह शरीर के लिए अनुकूल-प्रतिकूल पक्ष है।

विज्ञानवाद के कारण हम एक अस्थिरता, अनिश्चियता की ओर चले जा रहे हैं और विज्ञानियों ने मानव को एक यंत्र के रूप में व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। वे अभी तक सफल नहीं हो पाये है, ये सब सुना हुआ है। जो वैज्ञानिक मानव को यंत्र के रूप में व्याख्यायित करता है वह स्वयं इस व्याख्या से असंतुष्ट रहता है। आजकल मानव की यांत्रिक कार्यविधि को समझना एक बड़ा मुद्दा बना है। इसी आधार पर मानव के व्यवहार में गति, कार्य में गति, विचार में गति आ पायेगी ऐसा सोचते हैं। जबकि आदमी इस रूप में आता नहीं। विज्ञान ने यांत्रिकता को ही सटीक माना है इसको आदमी समझ सकता है, झेल सकता है। आदर्शवादियों ने संवेदनशीलता को नकारने की वकालत की। संवेदनशीलता को आदमी समझ नहीं सकता, झेल नहीं सकता। दोनों वादों में दूरियाँ बरकरार है। इस तरह एक के बाद एक समस्या में मानव जकड़ता गया। समस्या के साथ ही शरीर यात्रा को समाप्त करते हैं। कुल मिलाकर हमारी इस ढंग से स्थिति बनी है। अभी जो मैं मानव कुल के समक्ष प्रस्ताव रख रहा हूँ वह मानव जाति का ही पुण्य है ऐसी मेरी स्वीकृति है। मैंने जो परिश्रम किया उसका मैं, मूल्यांकन करता हूँ वह इतने बड़े फल (जितना हम पा गये) के योग्य नहीं है। जैसे अमरूद के पेड़ में एक टन का फल