जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
उत्पादन विनिमय हर जगह में आसानी से समाधान मिलता जाता है, इससे मैं सुखी हूँ हमारा परिवार सुखी है। मुझे ऐसा दिखता है हर परिवार सुखी होना चाहता है, हर मनुष्य सुखी, समझदार होना ही चाहता है कोई आदमी मूर्ख होना नहीं चाहता। इसलिए मूर्ख को भी मूर्ख कहने से वह गाली देगा और कहेगा तुम ही मूर्ख हो। इसलिए अस्वीकृत बात किसी को भी स्वीकृत नहीं होती। मूर्खता खिंचतान, द्वंद, द्रोह-विद्रोह, झगड़ा मुझको स्वीकृत नहीं है। भौतिकवादी कहते हैं द्रोह विद्रोह के बिना कुछ हो ही नहीं सकता।
इसके बदले में समाधानात्मक भौतिकवाद के नजरिए में जो कुछ भी अस्तित्व में है बल सम्पन्नता है। बल सम्पन्नता का उपयोग है, सदुपयोग है, प्रयोजनशीलता है यह ही जागृत जीवन में होने वाली स्वाभाविक खूशबु है। विज्ञान सम्मत यदि विवेक हो पाता है यही मुख्य मुद्दा है। विवेक का मतलब है प्रयोजन, तो प्रयोजन विज्ञान सम्मत हो जाए और विवेक सम्मत विज्ञान हो जाए। विज्ञान सम्मत विवेक का मतलब है जो मानव प्रयोजनों को विश्लेषण करने योग्य हो जाए। यदि प्रयोजन को हम विश्लेषण कर नहीं पाते तब तक हमारा तर्क अधूरा है। अभी तक विज्ञानवादी नियम यह कहता है कि हम तर्क संगत भौतिकवाद दिए हैं तो पहले तर्क तो यही आता है कि मैं क्या हूँ? कौन हूँ? क्यों हूँ? और हमारी शांति, अशांति, सुख, दुख कैसे निर्मित होते हैं? इससे हम पीड़ित क्यों होते हैं? खुशी क्यों होते हैं? इसका उत्तर विज्ञान से मिलता नहीं है। तो हम झूठ से कोई चीज शुरू करके सच्चाई को नहीं पा सकते। समाधान है, अस्तित्व में नियति है, नियतिक्रम है। नियतिक्रम का अर्थ है समाधान की ओर गतियां। इस बात को समझाने के लिए समाधानात्मक भौतिकवाद में प्रयत्न किया है।
इसी के आधार पर व्यवहारात्मक जनवाद की बात है। मनुष्य सुखी होना चाहता है और समाधान = सुख, समस्या = दु:ख। समाधान चाहिए ही चाहिए, समाधान कैसा होगा? व्यवहार से होगा। कैसे होगा? संबंध, मूल्य मूल्यांकन और उभयतृप्ति से समाधानित होंगे। यदि हम संबंधों को पहचानते नहीं है तब भी समस्या से ग्रसित रहते हैं, मूल्यों का निर्वाह करते नहीं संबंधों के अनुरुप तब भी हम समस्या से ग्रसित रहते हैं। ये (संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति) चारों होने पर समाधान होता