जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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मनोविज्ञान की जगह लेगा? इस अवधारणा से कैसे आदमी सुख-शांति को प्राप्त करेगा और समग्र मानव जाति एक सही दिशा को प्राप्त कर सकेगी।

उत्तर :- हर मानव, जीवन और शरीर का संयुक्त रूप है, इस बात को स्पष्ट किया है। जीवन मूल रूप में गठन पूर्ण परमाणु है। परमाणु ही संक्रमित होकर चैतन्य प्रकृति (जीवन) में होता है। तब प्रकृति अपने चैतन्य रूप में वैभवित हो पाती है। गठनपूर्ण परमाणु भारबंधन एवं अणुबंधन से मुक्त रहता है। यही उसका वैभव है। यह सहअस्तित्व विधि से समृद्ध मेधस-सम्पन्न शरीर को चलाने योग्य हो जाता है। ये दोनों नियतिक्रम में आने वाली विधियाँ है अर्थात् निश्चित रूप में अस्तित्व सहज उपलब्धियाँ है। मनुष्य में और अन्य जीवों में जीवन का और शरीर का संयुक्त रूप में होना होता है। इसको भली प्रकार से देखा गया है। इसका अध्ययन किया जा सकता है। अध्ययन का केन्द्र बिन्दु यही है कि जीवित रहना, न जीवित होना, जीवन-सम्पन्न रहना, और जीवन रहित रहना यह स्पष्ट होता ही है। इसमें जीवन सम्पन्न रहने का जो प्रमाण है ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार से समझ में आता है। जीवन शरीर के द्वारा प्रकाशित नहीं हो पाता है अर्थात ज्ञानेन्द्रियों का कार्य-कलाप जब नहीं हो पाता है तब मर गया कहते हैं। मरने का मतलब शरीर को जीवन छोड़ दिया रहता है। शरीर से जब जीवन अलग हो जाता है उस समय से मृतक हो गया ऐसी घोषणा करते हैं। ऐसे शरीर को हम मनुष्य नहीं कहते हैं। ‘जीवन’ शरीर को चलाते हुए स्थिति में ही हम मानव कहते हैं। ऐसा हर मानव एक विचारशील इकाई है। जीवों में विचारणा का कोई स्थान नहीं है। जीवों का विचार वंशानुषंगीयता के रूप में ही है। मनुष्य वंशानुषंगीय विधि से जीना चाहे तो भी कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता उससे अधिक दूर दूर तक पहुँचा ही रहता है। जब वंशानुषंगीयता के अर्थात् शरीर के सीमा में यदि हमारा विचार सीमित नहीं हुआ उस स्थिति में हम दूर-दूर तक फैलते ही हैं। इसके कारण हमारा (जीवन का) शरीर सीमा से सीमित रहना नहीं बना। इसके कारण हमारा शरीर सीमा तक विचार कर हम कहीं तृप्त नहीं हुए, समाधानित नहीं हुए। इसका गवाही है न तो हम समाजिक हो पाये और न ही अखण्ड समाज बना। सार्वभौम व्यवस्था को नहीं पाये। कुत्ते की व्यवस्था सार्वभौम है, घोड़े की व्यवस्था सार्वभौम है, हर जीव की व्यवस्था सार्वभौम है, मनुष्य कौन सा अभागा है जो उसकी व्यवस्था सार्वभौम न बनें?