जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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की बात है, अपराध को न्याय में बदलने की बात है, युद्ध को सहअस्तित्व में बदलने की बात है, द्रोह को सौजन्यता में बदलने की बात है, विद्रोह को मैत्री में बदलने की बात आती है हम ये सब को स्वीकारते ही हैं। 700 करोड़ लोगों से पूछ लीजिए द्रोह, विद्रोह, शोषण, युद्ध करना चाहिए की नहीं। सभी कहेंगे नहीं करना चाहिए। मेरे अनुसार कोई भी आदमी इसके लिए तैयार नहीं होता है कि वह हाय-हाय करता रहे। इस आवर्तनशील अर्थ क्रम से मानव जाति हाय-हाय, द्रोह, विद्रोह, शोषण, युद्ध से मुक्त हो सकता है जैसे पागल, स्वस्थ होने की इच्छा रखता है, वैसे ही आदमी में भी लाभोन्मादी अर्थ व्यवस्था में आर्वतनशील अर्थव्यवस्था की आकांक्षा समायी ही है, समायी हुई बात को जागृत करने की बात है।

शुभाकांक्षा हर मनुष्य में समायी ही रहती है उसको जगाने की बात है। जगाने के क्रम में आवर्तनशील अर्थ व्यवस्था एक अविभाज्य स्वरूप है, इसका मूल सिद्धांत श्रम नियोजन, श्रम विनिमय सिद्धांत है। इसी में हमारा महात्वाकांक्षा, सामान्यकांक्षा से संबंधित वस्तुओं को निर्मित करना है। आवर्तनशील अर्थव्यवस्था होना ही वर्तमान है, प्रकृति सहज है, नियति सहज, सहअस्तित्व सहज है। इसलिए इसको हमें पूरा अध्ययन करना चाहिए। जीवन में चरितार्थ करना चाहिए और स्वयं संतुष्ट होकर संतुष्टि के स्रोत बनना चाहिए।

प्रश्न :- आदमी-आदमी के बीच विसंगति और दुर्गति को देखकर कार्ल मार्क्स ने द्वंदात्मक भौतिकवाद की अवधारणा दी। जिसे साम्यवाद नाम दिया। उसमें ऐसा सपना दिखाया कि मनुष्य-मनुष्य के बीच आर्थिक विषमताओं के चलते उसकी निवृति इस साम्यवाद के द्वारा एक राजनैतिक व्यवस्था के अवतरण से संपन्न हो पाएगी। पिछले 70 वर्षों में 2/3 संसार ने साम्यवाद को स्वीकार किया उसके ऊपर गहरे प्रयोग हुए। उसके वजह से करोड़ों आदमी ने बहुत सी यातनाओं को भी उस स्वर्ग के उतरने की आशा के वशीभूत होकर झेला भी लेकिन अभी हमने देखा कि साम्यवाद सारी धरती पर कम से कम प्रयोगात्मक रूप में तो बहुत बुरी तरह से असफल हो गया। विश्व में इस बात को हम लोगों ने सिद्ध कर दिया कि द्वंद्व जो है वह आदमी के जीने में सुखी होने का आधार नहीं बन सकता।