जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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और भी बर्बाद होती ही है। बर्बाद होने के बाद वो एक अच्छा आदमी माना जाता है। ऐसा अच्छा आदमी बनने के पश्चात् बिना उत्पादन किये उनको सब कुछ चाहिए, सबसे ज्यादा उन्हीं को चाहिए। इस ढ़ंग से उत्पादन नहीं करने की प्रवृति और सम्पूर्ण वस्तुओं को ज्यादा से ज्यादा पाने की इच्छा ये दोनों मिलकर के संसार के साथ द्रोह, विद्रोह, शोषण होना भावी हो जाता है। इस ढंग से आदमी फंसा है। इससे मुक्ति चाहिए। मैं मुक्ति पाया हूं हमकों किसी का शोषण करने की जरूरत नहीं है, न द्रोह, विद्रोह करने की जरूरत है। परिश्रम से हम स्वयं अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन करते हैं। आप भी कर सकते हैं। आवश्यकता परिवार में ही निश्चित होती है, न कहीं व्यक्ति में न संसार में होती है। परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर लिया तो हम समृद्धि का अनुभव करते हैं। इस ढंग से आर्वतनशील अर्थ व्यवस्था के अध्ययन की आवश्यकता महसूस हुई। उसको निश्चित रूप में उसकी रचना करके हिन्दी भाषा में संसार को दिया है। वह लोक गम्य हो जाए तो इससे उपकार होगा। इससे कभी भी संसार के किसी भी आदमी, किसी भी परिवार का कहीं भी क्षति होने वाला नहीं है। होगा तो उपकार ही होगा। तो हमें भी शोषण विधि से मुक्त होना है। द्रोह, विद्रोह से मुक्त होना है। जो राजनीति अपने मन से कूटनीति को अपना लिया है उससे कहीं भी अभय, अमन, चैन होने वाला नहीं है। अमन चैन के लिए आर्वतनशील अर्थ व्यवस्था चाहिए। जैसे तन, मन, धन रूपी अर्थ को हम प्राकृतिक ऐश्वर्य पर नियोजित किया तो नियोजन से उत्पादित वस्तु हमारा तन के लिए पोषण, संरक्षण, समाज गति का आधार बनता है। पुन: हमारे इसी समाज गति, पोषण, संरक्षण के आधार पर हम पुन: वस्तु को निर्मित करने योग्य होते हैं, इस तरह से यह आवर्तनशील है।

मनुष्य अपनी शक्तियों को विचार शक्ति के साथ शरीर के द्वारा प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन करता है फलस्वरूप वस्तु निर्मित होती है। वस्तु जितना हमको चाहिए उससे ज्यादा हम निर्मित कर ही सकते हैं, हाय-हाय से मुक्त होने की बात यहाँ आती है। हम पहले से ही तृप्त होना चाह रहे हैं, सुखी होना चाह रहे हैं, इसलिए तृप्ति का उपाय खोजते हैं, उपाय खोजते-खोजते तृप्ति का उपाय आता है तो अपनाते ही हैं। इसमें छोड़ने वाली कोई बात नहीं है। गलती को सही में बदलने