जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
पत्र मुद्रा। पत्र मुद्रा किसी छापेखाने में छपता ही है। अब छापने का तकनीकी लोकव्यापीकरण हो चुकी है जिसके कारण नकली नोट छपता ही है। तो वर्तमान अर्थशास्त्र जिसकी कीर्ति गायी जाती है वह पत्र मुद्रा, और धातुमुद्रा का विज्ञान है। धातु मुद्रा, पत्र मुद्रा जितनी भी हमारे पास हो उससे जब वांछित वस्तु नहीं मिलती तो उस मुद्रा से न तो प्यास बुझती है न पेट भरता है। इसलिए इसको क्या माना जाए। वस्तु का प्रतीक प्राप्त होने से वस्तु की प्राप्ति होती नहीं। इस तरह से मुद्रा की प्राप्ति को हम वस्तु की प्राप्ति मान बैठे हैं इसी का नाम है पागलपन। इसके निराकरण के लिए मैंने जो प्रस्तुत किया है वह तन, मन, धन रूपी अर्थ है। यहां धन का तात्पर्य सामान्य आकांक्षा एवं महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तुओं से है। जिसमें आहार, आवास, अलंकार, दूरदर्शन, दूरगमन, दूरश्रवण संबधी आवश्यक वस्तुएं है। इस तरह से हमारे आवश्यकीय वस्तुओं की उपयोगिता होगी संग्रहण नहीं होगा। जैसे अनाज पैदा करते हैं एक वर्ष, दो वर्ष, चार वर्ष रखेंगे बाद में रखने पर तो सड़ ही जायेगा। उसी प्रकार कोई यंत्र उपकरण उपयोग न करने से अपने आप जंग पकड़ कर समाप्त हो जायेगा। इस तरह हम जो भी यंत्रों को तैयार करते हैं वे सब उपयोग के लिए रहता है इनको संग्रह किया भी नहीं जा सकता। संग्रह किया जा सकता है तो भी एक सीमा तक।
जितना ज्यादा हम संग्रह करने जायेंगे उतना ही ज्यादा कष्टदायक हो जाता है। इसलिए इनकी उपयोगिता अवश्यंभावी हो जाता है। उपयोगिता के अनन्तर सद्उपयोगिता और प्रयोजनशीलता के लिए सारे वस्तुओं को नियोजित किया जा सकता है। एक बहुत खूबी की बात मैंने देखा है किसी भी वस्तु के उत्पादन करते समय मन का होना जरूरी है, मन के बाद तन का होना जरूरी है। मन और तन के संयोग से ही सारे वस्तुओं का उत्पादन होता है। इस ढ़ंग से हम शायद साफ - साफ एक अवधारणा को स्वीकार सकते हैं कि वस्तु का मतलब है धन और इनका अर्थ है सामान्य आकांक्षा और महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तु। इस निर्णय से फायदा क्या होगा मानव जाति का मन उत्पादन की ओर लगने की शुरूआत होती है। अभी तक अर्थशास्त्र का डंका बजा-बजाकर हम मानव जाति (पढ़ा हुआ) के उत्पादन प्रकृति को निरर्थक या बिल्कुल उन्मूलन किये ही रहे हैं। बरबाद किए ही रहते हैं। उसके बाद और कोई स्पेशलाइजेशन की बात करते हैं उसमें उत्पादन कार्य प्रवृत्ति