अर्थशास्त्र
by A Nagraj
सुविधा में पुरूषों का वर्चस्व बना रहता है। तीसरी स्थिति यह भी देखी गई कि जिस परिवार में उत्पादन कार्य से भागीदारी का संबंध नहीं रह जाती है ऐसे परिवार में शासन और सुविधा का समानाधिकार की प्रवृत्ति उभरी हुई मिलती है। यह भी देखा गया है अधिकाधिक परिवार जो केवल संग्रह और भोगलिप्सा में रत रहते हैं इन्हीं मुद्दों (शासन और सुविधा) को लेकर कटुता, वितंडावाद, विरोध, विद्रोह बना रहता है। इस प्रकार दोनों स्थितियों में कुण्ठाएँ दिखाई पड़ती हैं। चौथे स्थिति में प्रौद्योगिकीय क्षेत्र में वेतन भोगी अथवा मजदूरी विधि से जो कार्यरत रहते हैं वे सब नौकरी लगते तक, मजदूरी में लगते तक कार्य करने में स्वीकृति बनी रहती है। परन्तु जब कार्यरत होते हैं, अर्थात् मजदूर, वेतनभोगी जब नियमित होते हैं उसके उपरांत अधिकांश लोगों में कार्य में शिथिलता होना देखा गया है। जो वेतनमान और मजदूरी पाते हैं उनमें विपुलता की चाह बढ़ जाती है। उद्योग का नियंत्रण, लाभाकांक्षा से पीड़ित रहना, जिसको हम मैनेजमेंट कहते हैं, दूसरे भाषा से उद्योगपति भी कहते हैं, सफल उद्योग का तात्पर्य ही है अधिकाधिक लाभ प्राप्त होते रहें। लाभ का और संग्रह का कहीं तृप्ति बिन्दु ही न होना सबको विदित है। इस विधि से उद्योग में भागीदारी करने वाले निरंतर व्यथित रहना, असंतुष्ट रहना ही हाथ लग पाता है। इस बीच भय और प्रलोभन के आधार पर ही उद्योग व्यवस्था को सफल बनाने का प्रयत्न प्रौद्योगिकी के आरंभ काल से ही जुड़ा हुआ देखा गया।
इस तथ्य को भले प्रकार से देखा गया है कि हर उत्पादन श्रम नियोजन का प्रतिफलन के रूप में ही होना पाया जाता है। प्रतिफलन श्रम नियोजन का ही होता है। प्रतिफलन का तात्पर्य यही है कि मानव के प्रखर प्रज्ञा रूपी निपुणता, कुशलता, पांडित्य का फल। मानव का प्रखर प्रज्ञा, मानवीयतापूर्ण प्रज्ञा ही होना पाया जाता है। ऐसा मानवीयतापूर्ण प्रज्ञा का सम्पूर्ण स्वरूप जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन और मानवीयता पूर्ण आचरण ही है। प्रतिफलन विधि से आबंटन क्रिया ही दूसरे विधि से विनिमय कार्य ही सर्वशुभ हो पाता है। प्रतिफलन विधि से लाभ की परिकल्पना मानव में होना संभव नहीं है। विनिमय के अनंतर भी उतना ही प्रतिफल बना रहता है, जितना उत्पादन किया रहता है। यही विनिमय विधि का तृप्ति बिंदु भी है। श्रम नियोजन क्रियाकलाप में न लाभ होता है न हानि होती है। कम उत्पादन भी एक कर्माभ्यास है। अधिक उत्पादन भी एक कर्माभ्यास ही है। यह अवश्य मानव में होने वाली प्रवृत्ति है- आवश्यकता से अधिक