अर्थशास्त्र
by A Nagraj
में दृढ़ रहना ही स्वायत्त मानव का स्थिति रूप है। ऐसे प्रत्येक मानव ही परिवार मानव के रूप में परिवार की परिभाषा को चरितार्थ रूप दे पाता है। मानव परिवार की परिभाषा और व्याख्या इस प्रकार होना देखा गया है कि कम से कम 10 व्यक्ति परस्परता में संबंधों को पहचानते हैं, स्थापित और शिष्ट मूल्यों को निर्वाह करते हैं, मूल्यांकन करते हैं और उभयतृप्ति पाते हैं। इसी के साथ परिवारगत उत्पादन कार्य में एक दूसरे के पूरक हो पाते हैं। फलत: परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर लेते हैं। इस प्रकार समाधान और समृद्धि का स्रोत परिवार से प्रचलित होना संभव हो जाता है।
वस्तु को उपयोगिता क्रम में महत्वाकांक्षा, सामान्याकांक्षा वर्गीकरण होना पहले से ही स्पष्ट है। सामान्य आकांक्षा संबंधी वस्तुओं के प्रति हर ग्राम स्वायत्त होना आवश्यक है। किसी एक गाँव में 2-4 सामान्य आकांक्षावादी वस्तुओं का उत्पादन नहीं करते हों, ऐसी स्थिति में 10 गावों की परस्परता में अथवा 100 ग्राम की परस्परता में इसकी आपूर्ति की संभावना बन जाती है। स्वायत्तता विधि से ही विश्व मानव परिवार सम्पूर्ण गलती, अपराध और युद्ध से मुक्त होकर सहअस्तित्व, शांति (अभय), समृद्धि, सर्वतोमुखी समाधानपूर्वक जीना संभव हो पाता है। अर्थ का स्वरूप मानव कुल में तन, मन, धन के रूप में ही आवर्तनशील होना सुस्पष्ट है। इन्हीं आवर्तनशीलता क्रम में उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता का तथ्य स्पष्ट होता है। हम इस तन, मन, धन की उपयोगिता को उत्पादन में देखते ही हैं। और मानव का शरीर पोषण, संरक्षण के रूप में उपयोगिता को पहचाना जाता है। यही तन, मन, धन व्यवस्था के रूप में जीने समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने में प्रायोजित हो पाता है। तभी यह सदुपयोग होना ख्यात हो पाता है। यही तन, मन, धन प्रामाणिकता और उसकी निरंतरता में प्रयोजित होता रहता है। इसी क्रियाकलाप को प्रयोजनशील नाम दिया है। प्रयोजनों का स्वरूप जागृति और उसकी परंपरा ही है। प्रयोजन ही मानव के उद्देश्यों के रूप में सुस्पष्ट होते हैं। यह प्रयोजन अर्थात् मानव परंपरा का प्रयोजन समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व है। सहअस्तित्व में प्रमाणित होना ही है।
गलती, अपराध, शोषण, द्रोह, विद्रोह और युद्ध मानव के और मानव परंपरा के लिए अवांछनीय होना स्वीकृत है। भ्रम मुक्ति पाकर वांछित लक्ष्य अर्थात् मानव लक्ष्य परंपरा में संक्रमित होने की आवश्यकता है। इसके लिए अर्थव्यवस्था, स्वराज्य व्यवस्था में ही