अर्थशास्त्र
by A Nagraj
संग्रहण के लिए अनुकूल और प्रयोजनकारी पशुओं का क्षय हुआ रहना विवशता का आधार बनता गया यही प्रधान रूप में कृषि, धरती, कृषक, कृषि कार्यों के बीच में बनी हुई विसंगतियाँ है।
अनाजों की गुणवत्ता जो पुष्टि के रूप में पहचानी जाती है। ऐसे पुष्टि का प्रयोजन मानव और जीव शरीर के लिए पुष्टिदायी होने के रूप में देखा जाता है। यह सर्वविदित भी है। रासायनिक उर्वरकों से पुष्टि की मात्रा घटती गई तादात की मात्रा बढ़ती गई। जैसे शक्कर को आटे में मिला देने पर शक्कर की तादात उस मात्रा में नही रहता है जो मात्रा आटा सहित दिखती है। इसी प्रकार हर अनाज वस्तुओं में पुष्टि का जो सघनीकरण है वह इन कृत्रिम उर्वरक संयोग से विरल हो गई। यह तो एक भ्रमात्मक विपदा मानव जाति को जटिल अनुसंधान के उपहार के रूप में प्राप्त है और इसी के साथ और सर्वाधिक क्षतिकारी परिणाम कीटनाशक द्रव्यों से है। ये कीटनाशक शनै:-शनै: हर अनाज में स्थापित हो चुकी है। जड़ से जो द्रव्य मिलता है उसको जल संयोग से हर पौधा ग्रहण कर पाता है और पत्ते फूल में जो द्रव्य पहुँचती है उसे पत्तों के द्वारा विशेषकर हवा, अनुपातिक उष्मा के साथ-साथ ग्रहण कर लेता है। पत्ती तने में जो पुष्टि तत्व संग्रहित होता है, वही बीज के रूप में अनाज के रूप मिल पाता है। इस क्रम में अधिक तादाद रूपी अनाज में घुली हुई कीटनाशक जहरों की धारा जुड़ जाती है।
विज्ञान विशेषज्ञता से ग्रसित है। सम्पूर्णता के साथ कुछ जिम्मेदारियाँ अनदेखी अथवा नासमझी रह जाती है फलस्वरूप कीट मार कार्यक्रम कृषि का एक अंग होना पाया जाता है। वह सम्पूर्णता से जुड़ी हुई होती ही है। विशेषज्ञता के आधार पर यह बात गले से उतरती नहीं है। अतएव विशेषज्ञता से जुड़ी हुई अधिकांश छोर सहअस्तित्व विरोधी होना पाया जाता है। हर विशेषज्ञ यह मानकर ही चलता है कि अनेक पुर्जों से एक इकाई की रचना है। इस तथ्य को पदार्थावस्था से बनी हुई यंत्रों में प्रमाणित किया गया। इसी तर्क को प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था में प्रमाणित करने के लिए अनेकानेक अनुसंधान कार्य बीजानुषंगीय और वंशानुषंगीय सिद्धांत के आधार पर सम्पन्न होते आये। बीजानुगत वनस्पति संसार दृष्टव्य है। वंशानुगत विधि से जीव शरीर और मानव शरीर की रचना होना देखा जाता है। यहाँ मुख्य तत्व प्राणावस्था की रचना, बीजानुषंगीय विधि को लेकर विश्लेषण और निष्कर्ष निकालने का आशय है। इसी क्रम में विशेषज्ञता