अर्थशास्त्र
by A Nagraj
की अभिलाषा सहज रूप में ही सभी वस्तुओं को उस-उसके स्वरूप में, से, के लिए जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने की प्रवृत्ति और प्रयास मानव में देखने को मिलता है।
मानव अपने शोध-अनुसंधान और प्रयोग क्रम में पुष्टि संरक्षण और विपुलीकरण कार्यों को पहचानने के लिए मूल आधार बीज-वृक्ष विधि को पहचानता है और इसका अंतर्संबन्धों को पहचानने के क्रम में इस क्रियाकलाप अर्थात् एक बीज-वृक्ष में होने की क्रियाकलाप के क्रम में धरती, जल, वायु, ऊष्मा के संयोग को पहचानना सहज है। ऐसे संयोग के साथ-साथ धरती में उर्वरक शक्ति की आवश्यकता, अनुपात और उसकी आपूर्ति विधि स्वाभाविक रूप में हमें पता लगता है। इस मुद्दे पर मानव पूरकता को उर्वरक संग्रहण विनियोजन कार्य के रूप में देखा जाता है। मानव के द्वारा उर्वरक संपादन क्रम में वनस्पति संसार के अवशेषों द्वारा, संग्रहण करने का कार्य और विनियोजन करने का कार्य सदा-सदा काल से ही देखने को मिलता रहा। इस कार्य में जब मानव अपना परिश्रम, पुरुषार्थ को छुपाने लगा, इसके विपरीत आलस्य, प्रमाद और सुविधा, लिप्सा के साथ जुड़ गया या परिकल्पना किया तब रासायनिक (खनिज जन्य) उर्वरक, अर्थात् वनस्पतियों के लिए पुष्टिकारी द्रव्य का उपयोग शुरू किया। यह तो उपयोग करने वालो की विडम्बना रही। दूसरे भाग में जो इसका उत्पादन कार्य कर रहे हैं, उनकी प्रवृत्ति लाभ से ग्रसित रहना स्पष्ट दिखाई पड़ता है। लाभ मानसिकता पहले से ही परिभाषित है, कम देकर अधिक लेना। दूसरी ओर यांत्रिक विधि से जोतने-काटने-गहाने का कार्य संपन्न होने के कारण वश हल बैल की आवश्कताएं गौण होती गई। कम हो गई। यही मुख्य रूप में फल है अस्तित्व में पूरकता सहज उर्वरक कार्य और विधान के साथ भ्रम होना।
रासायनिक उर्वरक विधि से कृषि उत्पादन तादाद के साथ होना देखा गया। सामान्य मानव जो कृषक वर्ग में गिने जाते हैं, कृत्रिम उर्वरकता विधि से अनजान रहते हैं, ये सब उत्पादन के तादाद को देखकर कृत्रिम उर्वरक विधि को अपना लिए। इसीलिए यह रासायनिक खाद प्रचलित हुए। इसी के साथ-साथ कुछ ही वर्षों बाद यह भी भासने लगा कि रासायनिक खाद से धरती बरबाद हो जाएगी जैसे अम्लाधिक, क्षाराधिक व्याधि से धरती ग्रसित हो जाएगी। यहाँ तक यह ज्ञानार्जन तिथि तक वनस्पतिजन्य उर्वरक