अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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अध्याय - 5

उत्पादन और मूल्य

उत्पादन की परिभाषा : समृद्धि के अर्थ में प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम पूर्वक स्थापित उपयोगिता एवं कला मूल्य ही उत्पादन है।

मानव परंपरा में केवल वस्तु मूल्यों के साथ ही जीना संभव नहीं है। जबकि भ्रमवश सर्वाधिक लोग वस्तुओं के साथ ही जीकर सुखी होने का प्रयास कर रहे हैं, किए हैं किन्तु सुखी होने का साक्ष्य मिलता नहीं है। सुखी होने की अभिलाषा हर व्यक्ति में समीचीन है अथवा हर व्यक्ति में बनी हुई है। सुख का स्वरूप मानवीयतापूर्ण आचरण है। मानवीयतापूर्ण आचरण में मूल्य, चरित्र और नैतिकता आवर्तनशीलता और उसका संतुलन ही तृप्ति और सुख है। मूल्यों का स्वरूप जीवन मूल्य, मानव मूल्य, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य और वस्तु मूल्य के रूप में है।

इन सभी मूल्यों के चरितार्थता के प्रमाण में समाज लक्ष्य दिखाई पड़ता है। मानव अखण्ड समाज के रूप में चरितार्थ होना ही सार्वभौम लक्ष्य है। तभी समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व रूपी साम्य लक्ष्य सर्वसुलभ होने की संभावना बनती है। इन लक्ष्यों में से सहअस्तित्व, अस्तित्व सहज लक्ष्य के रूप में है। अभय, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य निर्वाह सहज उपलब्धि के रूप में अखण्ड समाज वर्तमान होना समीचीन है। समृद्धि, पूरकता और उदात्तीकरण क्रियाकलाप सहित वस्तु मूल्यों का सदुपयोग-सुरक्षा के रूप में होना देखा जाता है। समाधान को मानव मूल्य और जीवन मूल्य के चरितार्थ रूप में होना पाया जाता है। यही दूसरे विधि से देखने पर प्रामाणिकता पूर्वक सहअस्तित्व का निर्वाह होता है। फलस्वरूप जीवन मूल्य का अनुभव होता है। अखण्ड समाज में परिवार मानव से विश्व परिवार मानव के रूप में जीने की कला से अभय अर्थात् परस्पर विश्वास देखने को मिलता है। परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन, लाभ-हानि मुक्त प्रणाली से हर परिवार में समृद्धि का अनुभव होता है। सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी को मानवीयतापूर्ण आचरण करने मात्र से सर्वतोमुखी समाधान सहज रूप में अनुभव होना पाया जाता है। इस प्रकार सार्वभौम मानवीयता पूर्ण