अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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पाता है, उसका भरपाई नित्य वैभव के रूप में सम्पन्न होना पाया जाता है। इससे हम यह निष्कर्ष को पाते हैं कि शिशुकालीन अपेक्षाएँ, शोध-कार्य प्रवृत्ति, कार्यप्रणाली के शोध के लिए प्रेरक होता है। दूसरा, मानव कुल में व्याप्त कुण्ठा यथा द्रोह-विद्रोह-शोषण और युद्ध साथ ही द्वेष से ग्रसित परिवार, समुदाय अपने त्रासदी जागृति महिमावश भ्रम मुक्ति और शोध प्रवृत्ति की आवश्यकता को इंगित करता है। तीसरा, यह धरती का शक्ल सूरत ही बदल जाना, पर्यावरण में प्रदूषण अपने पराकाष्ठा तक पहुँचना पुन: प्रचलित सूझबूझ के स्थान पर (जिससे यह घटनाएँ हुईं) विकल्पात्मक सूझबूझ के शोध की आवश्यकता को स्पष्ट करता है।

अभी तक आर्थिक कार्यक्रमों को सभी समुदाय परंपराएँ झेलते हुए सदियों-युगों को बिताया है। प्रधानत: आर्थिक कार्यक्रम के आधार पर ही प्रदूषण और द्रोह-विद्रोह-शोषण-युद्ध स्थापित होते हुए आया है। इसके साथ अर्थात् आर्थिक मजबूती और कमजोरी (ज्यादा-कम) के आधार पर नस्ल, रंग, संप्रदायों का भी पुट लगाकर जिसको संस्कृति का नाम देते हुए परंपराएँ आर्थिक रूप में ऊंचाई को पाने की होड़ में ही चलता आया। इसी में वर्ग संघर्ष की अनिवार्यता को स्वीकारना हुआ। फलस्वरूप विभिन्न समुदायों ने अपने-अपने ढंग से विशेषकर युद्ध के आधार पर ही राज्य का नाम देने में बाध्य हुए। इस धरती में अधिकांश संख्या में मानव आर्थिक मजबूतियों पर संस्कृति को पहचानने की कोशिश की। इसी बीच एक सभ्यता को भी पहचान लिया। संस्कृतियाँ जो आर्थिक आधार पर बनती आईं खाना, कपड़ा, नाच, गाना, विवाह आदि घटनाओं के तरीके के रूप में उपभोक्तावादी मानी गई। सभ्यता को विलासिता के आधार पर पहचाना गया। युद्धाभिलाषा से बनी हुई सौंपी गई कार्य विधाओं को, अधिकारों को निर्वाह करना। इन्हीं के तर्ज पर चलने वाले आदमी को भी सभ्य व्यक्ति माना गया। फलस्वरूप ऐसी सभ्यता संस्कृति पर आधारित साहित्य-कला पूर्णतया भय और प्रलोभन पर आधारित रहा। और भय को प्रदर्शित करने के लिए अपराधिक वर्णन प्रधान रहा। प्रलोभन के लिए श्रृंगार और कामुकता का वर्णन रहा है। ऐसी समुदाय परंपरा और देशों में जो ईश्वरवाद उदय हुआ, वह भी युद्ध विधा को स्वीकारा। आस्था केन्द्रों को निर्मित किया। अंततोगत्वा युद्ध प्रभावी-युद्धगामी मानसिकता से बनी संस्कृतियाँ यथावत् बनी रहीं। इसी बीच कुछ देशों में अध्यात्मवाद का बोलबाला हुआ। अध्यात्मवादी विधा में भी आस्थाएँ स्थापित हुईं। व्यक्तिगत उपासना कल्याण स्वान्त: सुख और स्वर्ग के आधार