अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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मानव में जागृति की प्यास, आवश्यकता प्रकारांतर से बनी ही है। यह प्रकारांतर से हर मानव में निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण से इंगित होता है। शिशु काल से ही न्याय की अपेक्षा, सही कार्य-व्यवहार करने की इच्छा, सत्य बोलने की प्रवृत्तियाँ देखने को मिलता है। परंपरा का ही दमखम है अथवा गरिमा है कि इन आशाओं को सार्थक बना देना। अभी तक सापेक्षता विधियों से चलकर न तो शैशवकालीन आशयों पर ध्यान ही दे पाया। इन आशयों को देखने के विपरीत अबोध और अज्ञानी के आधारों पर सापेक्षवादी निर्णयों अथवा रहस्यमयी आस्थाओं को लादने वाली कार्यप्रणाली को अपनाया। फलस्वरूप जागृति की आवश्यकता बलवती अवश्य हुई। यही इसका उपकार माना जा सकता है। प्रमाण के रूप में कोई उपलब्धियाँ न होकर रिक्तता अथवा कुंठा ग्रसित हो गया। मानव कुल में द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्ध के रूप में पनपता हुआ इस कुंठा को देखा गया। ऐसी कुण्ठा ग्रसित परम्परा के चलते इस धरती का शक्ल ही समृद्धि के स्थान पर वन-खनिज की रिक्तता के रूप में देखा गया। यह केवल सापेक्षता विधि को अपनाने का फल ही है। यह भी मानव कुल को बोध हो गया होगा कि सापेक्षता विधि से कोई शुभ होने वाला नहीं है। सापेक्षता विधि से बड़े-छोटे ज्यादा-कम की दूरियाँ बढ़ते ही जाना है। यह मानव कुल के लिए स्वीकार्य नहीं है। इसीलिए संतुष्टि बिन्दु की आवश्यकता है। इसका संतुष्टि बिन्दु सर्वमानव में एक ही स्वरूप में विद्यमान है। यह है जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना। यह ज्ञान, विज्ञान, विवेकपूर्ण विधि से अभिव्यक्ति संप्रेषणा प्रकाशन सूत्र बन जाते हैं जिससे मानव सहज रूप में किए जाने वाले कायिक, वाचिक, मानसिक; कृत, कारित, अनुमोदित और जागृत, स्वप्न, सुसुप्ति में भी समानता स्पष्ट हो जाती है।

जीवन सोता नहीं है, अपितु सतत कार्यरत रहता ही है। जीवन सहज अक्षय कार्य में से आंशिक कार्य ही शरीर के द्वारा प्रमाणित हो पाता है। जीवन जागृत होने के उपरांत भी जागृत, स्वप्न, सुसुप्ति अवस्थाओं में शरीर को जीवंत बनाए रखते हुए शरीर के दृष्टा पद में कार्यरत रहता ही है। इसमें जागृति के अनंतर शरीर को जीवन समझने वाला भ्रम दूर होता है। शरीर व्यवहार और अस्तित्व में दृष्टा पद स्वयं अनुभव सहज वैभव है। दृष्टा पद ही पूर्णता का द्योतक यही परंपरा से प्रमाण है। पूर्णता के अनंतर उसकी निरंतरता होना ही प्रमाण, महिमा है। इस विधि से मानव परंपरा जागृत होने के उपरांत ही मानव कुल में भाग लेने वाले हर जीवन का अपेक्षा जो शैशवकाल में ही सर्वेक्षित हो